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जिन पर कोई हक है ही नहीं ,उन से क्या शिकवा करे
आखिर कैसे कोई उन पर अपना झूठा हक जताए।
जो बस इक आवाज़ के मुंतज़िर हैं अपनी तसल्ली के लिए,कोई कैसे उनके कानों तक पहुंचाये अपनी सदाएं।
न खत्म हों इतने फासले हैं,न कम हों इतनी दूरियां हैं
ऐसे में क्या कोई किसी की जानिब कदम बढ़ाए।
टूटी हुई हर झूठी आस,एक सच्चा दुख ही देकर जाती है
क्यों कोई झूठी उम्मीदें बांधें,क्यों किसी को झूठी आस दिलाए।
जाने अनजाने ही जिसको मिला है दर्द अपनी वजह से
कोई कैसे दे उनको दिलासा,क्या कहकर ढांढ़स बंधाए।
जो वाकिफ हैं खूब दुनियादारी से,इल्म से जिनका गहरा नाता है,उनको क्या कोई सीख दे, क्या समझाए।
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