
मैंने कभी समाना चाहा था
समस्त आकाश अपनी आंखों के स्वप्नों में,
पांवों को देनी चाही थीं अनंत यात्राएं,
अंतर में भरने चाहे थे अंगारे,
अधरों पर देने चाहे थे विद्रोह के स्वर,
हाथों में थामनी चाही थीं
जलती मशालें अंधेरा मिटाने के लिए,
पर समय के साथ सब कुछ बदल गया
आंखों में अनंत आकाश की जगह
रह गये बस दीवारेंऔर छत,
अनंत यात्राओं की जगह
पांव एक ही पथ पर करते हैं
अंतहीन दोहराती यात्राएं ,
अंतर के अंगारे ,
जीवन के चंद थपेड़ों से ही
राख में परिवर्तित हो गये,
हाथों में कभी जलती हुई मशालें थामी ही नहीं,
कभी-कभी अपराधबोध से मुक्ति के लिए
निकला मै भीड़ के साथ
सड़कों पर मोमबत्ती थामे हुए।
इतने सब के बाद भी
कभी-कभी मुझे लगता है कि
मेरे अंतर की राख में अब भी
दबी हुईं कुछ चिंगारियां शेष हैं।
मेरे पांव इन रास्तों पर चलते हुए भी
कभी-कभी खोज लेते हैं
कुछ ऐसी पतली पगडंडियां,
जिनपर चलने से
कुछ क्षणों के लिए ही मुझे लगता है,
जैसे ये ही तो वो पथ हैं जिन पर,
कभी चलना चाहता था मैं।
मेरे अधरों से आज भी
कभी- कभी फूट पड़ते हैं
विद्रोह के दबे हुए अस्फुट से स्वर ।
कभी-कभी मैं अकेले ही निकल जाता हूं,
किसी सुदूर जगह की यात्रा पर
जहां आज भी निर्मल दिखता है पूरा आकाश,
ऐसी जगहों पर
मैं समा लेता हूं पूरा आकाश अपनी आंखों में।
ये वो कुछ क्षण होते हैं
जब मुझे लगता है,
मैं सचमुच जी रहा हूबस सांस भर नहीं ले रहा।
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