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साम्प्रदायिक, धार्मिक व जातिगत कट्टर उन्माद के कारण लोग अपने मूल अधिकार, कर्तव्य व मानवीय गुणों को भूलते जा रहे हैं जोकि मानव-सभ्यता की पीढ़ी-दर-पीढ़ी गतिशीलता व अनवरतता के लिए भयावह हैं।
मुझे नहीं पता कि आज लोग सही-गलत में फर्क करना भूलते जा रहे हैं या फर्क करना नहीं चाहते या फिर फर्क करने से डरते हैं।
सबसे बड़ी बिडम्बना आज के साहित्य जगत के नवोदित साहित्यकारों की है, उनकी कलम रचना से पहले सामुदायिक रूप से अपना एक सामाजिक पक्ष निर्धारित कर लेते हैं, जिससे उनकी लेखनी सर्वस्वीकार्य नही रह जाती, पढ़कर एक पक्ष खुश होता है तो दूसरा पक्ष आहत।
वो ऐसा क्यों करते हैं, ऐसा करने पर उनके किस हितों की पूर्ति होती है.. वगैरह..वगैरह...लेकिन जो भी हो
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