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खड़ा द्वार पर रक्षक बनकर, छोटा बालक एक। 

दिखने में कुछ हृष्ट पुष्ट था, तेजोमय अतिरेक।  

जमा हुआ था द्वारपाल वो, लिए शिला की टेक।  

तभी अचानक चौंक गया, औघड़ को आता देख।  

औघड़ का था रूप अनोखा, गौर देह पर भस्म।

बँधी जटाएँ चंद्र शीश पर, वस्त्र व्याघ्र का चर्म।  

शूल हाथ में बड़ा भयंकर, नाग कंठ लिपटा था।  

शक्तिपुंज सा बढ़ता आता, डग लंबे भरता था। 

और बहुत से संगी साथी, साथ साथ चलते थे।  

भूत सरीखे बहुत भयानक, कोलाहल करते थे।  

श्वेत बैल था भारीभरकम, साथ साथ चलता था।  

इस दल बल के चलने भर से, पर्वत भी हिलता था। 

औघड़ सीधा द्वार पार कर,जाता भीतर मौन।  

बालक को सम्मुख जब देखा, तो पूछा - तुम कौन?

बालक बोला बाबा औघड़, द्वारपाल हूँ गौण,

अनुमति बिन घुसते जाते हो, आप बताओ कौन?

मैं तो तुमको नहीं जानता, देखा न है पहले।  

कौन तुम्हारे मात-पिता हैं, तुम् बताओ पहले। 

खड़े हुए हो यहाँ बालक, किसकी आज्ञा पाकर?

हट जाओ अंदर जाने दो, ये मेरा ही है घर।  

बालक बोला मैं जिनका सुत वे, गौरी माता हैं!

कोई अंदर न आ पाए उनकी ही आज्ञा है।  

बाबाजी जाओ यहाँ से, अंदर न जाने दूँगा।

जब भी माता बोलेंगी, द्वार से तभी हटूँगा।  

तुम पार्वती के नंदन कैसे? ये कैसे संभव है?

बालक तुम जैसा कहते हो, वैसा सत्य अभव है।  

जाने दो अंदर मुझको , चलो द्वार से हट जाओ।  

जाओ खेलो कहीं और, छोडो अपनी हठ जाओ। 

बालक बोला नहीं हटूँगा, चाहो तो युद्ध करो। 

और अधिक नहीं सुनूँगा, और न मुझको क्रुद्ध करो। 

बाबा फिर नंदी से बोले, बालक को समझाओ। 

मैं आता हूँ कुछ क्षण में, तब तक इसको हटवाओ।

नंदी ने उस बालक को, समझाने का यत्न किया।  

बाबा स्वामी हैं वो, जिनके मार्ग में विघ्न किया।  

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