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सुनो,कैसे खोजूँ,
कि कैसे सहेजूँ
कहो कैसे समेटूँ,
स्वयं को मैं कान्हा!
...
जितना तड़पूँ,
उतना ही तरसूँ,
कितना भी बरसूँ,
स्वयं; भींगूँ मैं कान्हा!
...
ये चित मेरा,
जपे नाम तेरा,
कित डालूँ डेरा,
स्वयं; हारूँ मैं कान्हा!
...
तुमसे बिछोह,
टूटा पाश मोह,
दर्पण लेत टोह,
स्वयं;कैसे सवारूँ मैं कान्हा!
...
उज्जवल भोर,
किन्तु! मैं चकोर,
प्रीत; तम से जोड़,
स्वयं; ‘श्याम’ बनूँ मैं कान्हा!
...
©अबोध_मन//“फरीदा”
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