
आज फिर एक और ट्रैन, एक और नया सफर, एक और नयी मंजिल और फिर मैं अकेला ।
लेकिन अब ट्रैन में अकेलापन नहीं होता,अब आदत हो गई है, मान लिया है की ये ट्रैन ही मेरा घर है और ये सहयात्री मेरे परिवारी जन । इस स्लीपर क्लास के डिब्बे में माहौल सबसे अधिक सुखप्रद और आनंदमय होता है। हर सफर पर कुछ और नए रिश्ते बनते जाते हैं, और बहुत सारी यादें।
यादें! यही वो शब्द है जो हर बार मुझे तुम्हारे होने का अहसास कराता है। मुझे आज भी याद है जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था, चेहरे पर कभी न ख़त्म होने वाली मुस्कान, वो आँखों में एक अलग ही सुकून था, तुम्हारे चेहरे पर आई उस कांति को देख कर मैं खुद को तुम में खोजने लगा था और फिर अचानक-
" ओ हेलो! ये मेरी सीट है, आप उठने को कष्ट करेंगे"
" जितनी आपकी है उतनी मेरी भी है"
"क्या मतलब"
"मतलब ये की आपकी और मेरी, दोनों की टिकट RAC है, लेकिन अगर आप चाहे तो मैं कही और भी बैठ सकता हूँ"
"नहीं-नहीं इसकी कोई जरुरत नहीं है"
चूँकि दिन का सफर था तो मुझे और कहीं बैठने में कोई दिक्कत तो नहीं थी, और में बैठ भी जाता लेकिन आज मन नहीं था। अब चूँकि गलती मोहतरमा की थी तो पहल भी उन्होंने ही की,
" अहाना- अहाना अवस्थी"
एक बार को ऐसा लगा जैसे जेम्स बांड का परिचय हो, लेकिन चूँकि ये हमारे किसी में सफर में किसी भी हमउम्र महिला सहयात्री के साथ ये पहला वार्तालाप था तो हमने सीधे ही अपना परिचय दिया,
"अभिषेक भारती"
"आप दिल्ली जा रहे हैं?"
" नहीं....."
"अच्छा... मुझे लगा दिल्ली जा रहे हैं, मैं भी बस घूमने जा रही हूँ, अपनी फ्रेंड के यहां"
"दिल्ली में कहाँ?" - ये प्रश्न मेने ऐसे ही यकायक प
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