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शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का

Wali Muhammad WaliWali Muhammad Wali
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शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का

माह के सीने उपर ऐ शम्अ-रू

दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का

दिल कूँ देता है हमारे पेच-ओ-ताब

पेच तेरे तुर्रा-ए-तर्रार का

जो सुन्या तेरे दहन सूँ यक बचन

भेद पाया नुस्ख़ा-ए-असरार का

चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त

जा तमाशा देख उस रुख़्सार का

आरसी के हाथ सूँ डरता है ख़त

चोर कूँ है ख़ौफ़ चौकीदार का

सर-कशी आतिश-मिज़ाजी है सबब

नासेहों को गर्मी-ए-बाज़ार का

ऐ 'वली' क्यूँ सुन सके नासेह की बात

जो दिवाना है परी-रुख़्सार का

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