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जहाँ चुप रहना था,
मैं बोला ।
जहाँ ज़रूरी था बोलना,
मैं चुप रहा आया ।
जब जलते हुए पेड़ से
उड़ रहे थे सारे परिन्दे
मैं उसी डाल पर बैठा रहा ।
जब सब जा रहे थे बाज़ार
खोल रहे थे अपनी अपनी दूकानें
मैं अपने चूल्हे में
उसी पुरानी कड़ाही में
पका रहा था कुम्हड़ा
जब सब चले गए थे
अपने अपने प्यार के मुकर्रर वक़्त और
तय जगहों की ओर
मैं अपनी दीवार पर पीठ टिकाए
पूरी दोपहर से शाम
कर रहा था ऐय्याशी
रात जब सब थक कर सो चुके थे
देख रहे थे अलग अलग सपने
लगातार जागा हुआ था मैं
मेरे ख्वाज़ा
मुझे दे नीन्द ऐसी
जो कभी टूटे ना
किसी शोर से
जहाँ मैं लोरियाँ सुनता रहूँ
अपने इस जीवन भर ।
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