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दास्तान-ए-ला-पता

Uday PrakashUday Prakash
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बहुतेरे ऐसे लोग-बाग़ हैं, जो अब उन पतों पर नहीं रहते
जहाँ वे वर्षों से, कभी-कभी तो कई पीढ़ियों से हमेशा पाए जाते थे ।

बहुत-से ऐसे गाँव-मोहल्ले, दूक़ान, क़िले, घर और बग़ीचे अब उजाड़ हैं बीयाबान
निर्जनता और ख़ामोशियाँ भय और रहस्य के भारी-भरकम जूते पहने
दिन-रात वहाँ गलियों में टहलती है

वहाँ रहने वाले लोगों को कहीं और ले जाया गया है
या वे ख़ुद ही किसी रात या दिन की परछाइयों में चुपचाप अपने पीछे
छोड़ गए हैं अपने पुराने पते

ये जगहें और उनके पुराने पते अब सिर्फ़ उनकी स्मृतियों के अतीत में होंगे
जल उठते होंगे वे कभी-कभी किसी बीमार पुराने बल्ब की तरह
उनके अपने धुन्धले जीवन में, अगर वे अभी भी किसी दूसरे पते पर मौजूद हैं

यहाँ तो अब सन्नाटा बजता है
सायरन या नारे या एम्बुलेंस का अलार्म की आवाज़ में

वे लोग जहाँ कहीं भी हैं
उनका हर रोज़ एक कोशिश है ग़मज़दा, कठिन और दारुण
अपने छूटे पतों पर लौटने की, जिन्हें अब भी वे न भूलने के लिए अक्सर चुप हो जाते हैं

पिछले कई वर्षों-दशकों से, मुग़लों-अँग्रेज़ों से लगाकर आज तक
किसी को लौटते हुए नहीं देखा गया
जो जाता है, लोग-बाग़ डरे हुए या मुस्कुराते हुए कहते हैं — ‘वह चला गया !’
सरकारी और पँजीकृत चिट्ठियों के लिफ़ाफ़ों पर लिखता है पड़ोसी —
‘इस नाम का कोई व्यक्ति इस पते पर नहीं रहता ।’

महाकाव्यों और पॉप्युलर फ़िल्मों में ज़रूर ऐसा पाया जाता है
उसके नायक या पात्र कई-कई साल किन्हीं जँगलों-कन्दराओं के अज्ञातवास में गुज़ारकर
किसी कालजयी विजेता की तरह लौटते हैं दूँदुभियाँ-नगाड़े बजाते, ध्वजाएँ फहराते

यथार्थ में जो लौटता है वह एक हारा हुआ आदमी होता है बीमार बूढ़ा
भगोड़ा या फ़रार अपनी पहचान और चेहरा छुपाता हुआ

कभी-कभी किसी गए हुए ला-पता का शव ही लौटते देखा गया है
लोग उसे किसी विरक्त निस्पृहता के साथ
आसपास की नदी या तालाब के किनारे फूँक कर अपने घरों को लौट आते हैं

मरने के बाद न चाँद रहता है न सूरज
न हवा न पानी
सिर्फ़ मरे हुए की स्मृतियाँ रहती हैं अन्तरिक्ष में
मरने के बाद पुराने पते पर लौटना असम्भव है

जो जीवित होता है वही लौटता है

अगर कभी कोई तुमसे कहे
उसने किसी मृतक को देखा है नए कपड़ों में बाज़ार में कुछ ख़रीददारी करते हुए
खाते-खिलखिलाते हुए अपने जीवित बचे परिवार के साथ
या उसे देखा है किसी बहुत पुराने छूटे हुए वीरान ईंटहे घर की खिड़की से बाहर की ओर
चुपचाप टकटकी बाँधे कुछ निहारते हुए

तो मान लेना कि यह सच है

वैसा ही सच जैसे कोई कहे कि उसने 16 मई 2019 को देखा है
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के साथ
कोलकाता के भरे बाज़ार में दिन-दहाड़े घूमते और गाते हुए

या कोई अपनी भाषा से निर्वासित सनकी कवि अगर कहे
हर साल और यह कोई अजूबा नहीं कि
30 जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में
एक बूढ़ा शाल ओढ़े लाठी टेकता
दिल्ली में टहलता दिखता है
तीस जनवरी लेन के किसी सेठ के पते की ओर अकेले पैदल जाते हुए

बोर्गो डोरा, टूरिन 18 मई 2019

(अपने बेहद प्रिय कथाकार मंज़ूर एहतेशाम से शीर्षक के लिए क्षमा माँगते हुए।)

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