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प्रतीक्षा करो
या न करो
कोई फ़र्क पड़ता है, भला
वह रात के रहस्य में आती है तुम्हारे पास
तुम्हारी चादर की सल में अपनी पाँखुड़ी को धीरे-धीरे खोल देती हुई
तुम्हारे कानों की प्याली से अपनी ही गर्म सांस को पीती हुई —
वह थक भी जाती है तुमसे
तुम्हारे बिम्बों और अक्सों और ध्वनियों से
किन्हीं और उँगलियों को अपने फूलों की दहक से छूना चाहती है वह
जो कोई और ही रूप देती हैं उसे
आह रूप !
जो चहों ओर तुम्हारा ही लिखा हुआ जान पड़ता है तुम्हें
कहीं भी
किसी भी छाती में बिंधा हुआ तीर
दिशाओं में लरज़ रहा है तुम्हे टँकार देता हुआ
तुम उतने ही दारिद्रय में हो
उतने ही ऐश्वर्य में
जितना तुम दे सकते हो स्वयं को —
वह तुमसे थक कर भी
तुम्हारे ही पास लौट आती है।
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