जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
तुमने मुझको जैसा रखा, वैसा मैं रहा
अपने तन को तिल – तिल जलाकर
तुम्हारे आगे रोशनी किया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी साँसों का हार बनाया
कभी तन, धूप, दीप जलाया
कभी आँखों से आँसू लेकर
तुम्हारे मंदिर को धोया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी अनल जल स्नान किया
कभी काँटों पर सोया
फाड़कर अपनी पुरानी धोती
ओढ़ा और ओढ़ाया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
तुम्हारे चिन्ह अनेक मिले
पर तुम न पड़ी, कहीं दिखाई
घर त्यागकर आज मैं
तुम्हारे शरण में आया
जवानी बीती, बुढ़ापा आया
फिर भी तुम से कभी कुछ कहा
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी साँसों का दीप जलाया
कभी तन का भोग लगाया
कभी अपने व्यथित हृदय को
गले लगाकर समझा और समझाया
कभी दुख की दरिया में डूबकर
सुख- माया के संग खेला
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी तुम्हारे चौकठ पर सर पटका
कभी अपने लिए दुआ माँगा
कभी बेबसी और लाचारी सुनाकर
बिलख - बिलखकर रोया
कभी अपने भाग्य पर जी भर हँसा
कभी दूसरे को भी हँसाया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी तो तुमने ये कहा , जीने का ध्येय
कृति नहीं, धन नहीं ,सुख नहीं, दर्शन नहीं
क्या कभी मैंने तुमसे इसके लिए हठ किया
तुमने जैसा चाहा, मैंने वैसा जीया
जब- जब दुख- विष का प्याला भेजा
मैंने अमृत समझ चुपचाप पीया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
पहनूँगी मैं मुक्ता की माला
चाँदी का दे दो मुझको दोशाला
रत्न – जडित महल हो मेरा
जहाँ बजता हो ढाक - मजीरा
ऐसा कुछ, मैंने तुमसे कभी माँगा
तुमने जैसा रखा, मैं वैसा रहा
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments