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(१) अहे निष्ठुर परिवर्तन! तुम्हारा ही तांडव नर्तन विश्व का करुण विवर्तन! तुम्हारा ही नयनोन्मीलन, निखिल उत्थान, पतन! अहे वासुकि सहस्र फन! लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर ! शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर ! मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर , अखिल विश्व की विवर वक्र कुंडल दिग्मंडल ! (२) आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल? भूतियों का दिगंत-छबि-जाल, ज्योति-चुम्बित जगती का भाल? राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार? स्वर्ग की सुषमा जब साभार धरा पर करती थी अभिसार! प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार, (स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार) गूंज उठते थे बारंबार, सृष्टि के प्रथमोद्गार! नग्न-सुंदरता थी सुकुमार, ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार! अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात, कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात? दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात, अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात! (३) अह दुर्जेय विश्वजित ! नवाते शत सुरवर नरनाथ तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ; घूमते शत-शत भाग्य अनाथ, सतत रथ के चक्रों के साथ ! तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित , करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित , नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित ! आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल वह्नि,बाढ़,भूकम्प --तुम्हारे विपुल सैन्य दल; अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल हिल-इल उठता है टलमल पद दलित धरातल ! (४) जगत का अविरत ह्रतकंपन तुम्हारा ही भय -सूचन ; निखिल पलकों का मौन पतन तुम्हारा ही आमंत्रण ! विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल; तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल ! अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल नैश गगन - सा सकल तुम्हारा हीं समाधि स्थल !
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