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सार्वजनिक जीवन

Sudama Pandey DhoomilSudama Pandey Dhoomil
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मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूँ
क्या ख़ूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या ज़िन्दगी है
जो हमेशा दूसरों के जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियाँ खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक़्शे की लकीरें इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहाँ चिपकाना है
और पेशाब कहाँ करना है
और इसी तरह ख़ाली हाथ
वक़्त-बेवक़्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।

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