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गली अकेली है प्यारे अँधेरी रातें हैं

Shah Mubarak AbrooShah Mubarak Abroo
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गली अकेली है प्यारे अँधेरी रातें हैं

अगर मिलो तो सजन सौ तरह की घातें हैं

बुताँ सीं मुझ कूँ तू करता है मनअ' ऐ ज़ाहिद

रहा हूँ सुन कि ये भी ख़ुदा की बातें हैं

अज़ल सीं क्यूँ ये अबद की तरफ़ कूँ दौड़ें हैं

वो ज़ुल्फ़ दिल के तलब की मगर बरातें हैं

रक़ीब इज्ज़ सीं माक़ूल हो सके हैं कहीं

इलाज उन का मगर झगड़ें हैं व लातें हैं

करो करम की निगाहाँ तरफ़ फ़क़ीरों की

निसाब-ए-हुस्न की साहब यही ज़कातें हैं

रहीं फ़लक के सदा हेर-फेर में नामर्द

ये रंडियाँ हैं कि चरख़ा हमेशा क़ातें हैं

लिखूँगा 'आबरू' अब ख़ुश-नयन कूँ मैं नामा

पलक क़लम हैं मिरी मर्दुमुक दवातें हैं

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