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मैं कई बार मिट चुका हूँगा
वरना इस ज़िंदगी की इतनी धूम
हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िंदगी की दास्ताँ
उनकी फ़रमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें
अपनी मिट्टी को छिपाएँ आसमानों में कहाँ
उस गली में भी न जब अपना ठिकाना हो सका
इल्मो-हिकमत, दीनो-ईमाँ, मुल्को-दौलत, हुस्नो-इश्क़ :
आपको बाज़ार से जो कहिए ला देता हूँ मैं
जहाँ में अब तो जितने रोज़ अपना जीना होना है
तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना है
जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
वही शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद
आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद
मेरी बातें भी तुझे ख़ाबे-जवानी-सी हैं
तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद
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