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मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर,
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया:
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!
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मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर,
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया:
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!
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