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अल्लाह दित्ता

Saadat Hasan MantoSaadat Hasan Manto
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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दित्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उन के आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा।
अल्लाह रक्खा और अल्लाह दित्ता दोनों सरकारी मुलाज़िम थे। एक चीफ़ सेक्रेटरी साहब बहादुर का अर्दली था, दूसरा कंट्रोलर आफ़ स्टोरेज़ के दफ़्तर का चपड़ासी।
दोनों भाई एक साथ रहते थे ताकि ख़र्च कम हो। बड़ी अच्छी गुज़र रही थी। एक सिर्फ़ अल्लाह रक्खा को जो बड़ा था, अपने छोटे भाई के चाल चलन के मुतअल्लिक़ शिकायत थी। वो शराब पीता था। रिश्वत लेता था और कभी कभी किसी ग़रीब और नादार औरत को फांस भी लिया करता था। मगर अल्लाह रक्खा ने हमेशा चश्म-पोशी से काम लिया था कि घर का अम्न-ओ-सुकून दरहम बरहम न हो।
दोनों शादीशुदा थे। अल्लाह रक्खा की दो लड़कियां थीं। एक ब्याही जा चुकी थी और अपने घर में ख़ुश थी। दूसरी जिस का नाम सुग़रा था, तेराह बरस की थी और प्राइमरी स्कूल में पढ़ती थी।
अल्लाह दित्ता की एक लड़की थी......ज़ैनब...... उस की शादी हो चुकी थी मगर अपने घर में इतनी ख़ुश नहीं थी। इस लिए कि उस का ख़ाविंद ओबाश था। फिर भी वो जूं तूं निभाए जा रही थी। ज़ेनब अपने भाई तुफ़ैल से तीन साल बड़ी थी। इस हिसाब से तुफ़ैल की उम्र अठारह उन्नीस बरस के क़रीब होती थी। वो लोहे के एक छोटे से कारख़ाने में काम सीख रहा था। लड़का ज़हीन था, चुनांचे काम सीखने के दौरान में भी पंद्रह रुपय माहवार उसे मिल जाते थे।
दोनों भाईयों की बीवियां बड़ी इताअत-शिआर, मेहनती और इबादत-गुज़ार औरतें थीं। उन्हों ने अपने शौहरों को कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया था।
ज़िंदगी बड़ी हम-वार गुज़र रही थी कि इका-ईकी हिंदू मुस्लिम फ़सादाद शुरू हो गए। दोनों भाईयों के वहम-ओ-गुमान में भी नहीं था कि उन के माल-ओ-जान और इज़्ज़त-ओ-आबरू पर हमला होगा और उन्हें अफ़रा-तफ़री और कस्म-पुर्सी के आलम में रियासत पटियाला छोड़ना पड़ेगी...... मगर ऐसा हुआ।
दोनों भाईयों को क़तअन मालूम नहीं कि इस ख़ूनीं तूफ़ान में कौन सा दरख़्त गिरा, कौन से दरख़्त से कौन सी टहनी टूटी...... जब होश-ओ-हवास किसी क़दर दुरुस्त हुए तो चंद हक़ीक़तें सामने आएं और वो लरज़ गए।
अल्लाह रक्खा की लड़की का शौहर शहीद कर दिया गया था और उस की बीवी को बुलवाइयों ने बड़ी बे-दर्दी से हलाक कर दिया था।
अल्लाह दित्ता की बीवी को भी सिखों ने किरपाणों से काट डाला था। उसकी लड़की ज़ैनब...... का बद-चलन शौहर भी मौत के घाट उतार दिया गया था।
रोना धोना बे-कार था। सब्र शुक्र के बैठ रहे...... पहले तो कैम्पों में गलते सड़ते रहे। फिर गली कूचों में भीक मांगा किए। आख़िर ख़ुदा ने सुनी। अल्लाह दित्ता को गुजरांवाला में एक छोटा सा शिकस्ता मकान सर छुपाने को मिल गया। तुफ़ैल ने दौड़ धूप की तो उसे काम मिल गया।
अल्लाह रक्खा लाहौर ही में देर तक दर-ब-दर फिरता रहा। जवान लड़की साथ थी। गोया एक पहाड़ का पहाड़ उस के सर पर था। ये अल्लाह ही जानता है कि उस ग़रीब ने किस तरह डेढ़ बरस गुज़ारा। बीवी और बड़ी लड़की का ग़म वो बिलकुल भूल चुका था। क़रीब था कि वो कोई ख़तरनाक क़दम उठाए कि उसे रियासत पटियाला के एक बड़े अफ़्सर मिल गए जो उस के बड़े मेहरबान थे। उस ने उन को अपनी हालत-ए-ज़ार अलिफ़ से ले कर यए तक कह सुनाई। आदमी रहम दिल था। उस को बड़ी दिक्कतों के बाद लाहौर के एक आरिज़ी दफ़्तर में अच्छी मुलाज़मत मिल गई थी, चुनांचे उन्हों ने दूसरे रोज़ ही उस को चालीस रुपया माहवार पर मुलाज़िम रख लिया और एक छोटा सा क्वार्टर भी रिहाइश के लिए दिलवा दिया।
अल्लाह रक्खा ने ख़ुदा का शुक्र अदा किया जिस ने उस की मुश्किलात दूर कीं। अब वो आराम से सांस ले सकता था और मुस्तक़बिल के मुतअल्लिक़ इत्मिनान से सोच सकता था। सुग़रा बड़े सलीक़े वाली सुघड़ लड़की थी, सारा दिन घर के काम काज में मसरूफ़ रहती। इधर उधर से लकड़ियां चुन के लाती। चूल्हा सुलगाती और मिट्टी की हंडिया में हर रोज़ इतना सालन पकाती जो दो वक़्त के लिए पूरा हो जाये। आटा गूँधती। पास ही तनूर था, वहां जा कर रोटियां लगवा लेती।
तन्हाई में आदमी क्या कुछ नहीं सोचता। तरह तरह के ख़यालात आते हैं। सुग़रा आम तौर पर दिन में तन्हा होती थी और अपनी बहन और माँ को याद कर के आँसू बहाती रहती थी, पर जब बाप आता तो वो अपनी आँखों में सारे आँशू ख़ुश्क कर लेती थी ताकि उस के ज़ख़्म हरे न हूँ। लेकिन वो इतना जानती थी कि उस का बाप अंदर ही अंदर घुला जा रहा है। उस का दिल हर-वक़्त रोता रहता है मगर वो किसी से कहता नहीं। सुग़रा से भी उस ने कभी उस की माँ और बहन का ज़िक्र नहीं किया था।
ज़िंदगी उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां गुज़र रही थी। उधर गुजरांवाला में अल्लाह दित्ता अपने भाई के मुक़ाबले में किसी क़दर ख़ुश हाल था, क्यों कि उसे भी मुलाज़मत मिल गई थी और ज़ैनब भी थोड़ा बहुत सिलाई का काम कर लेती थी। मिल मिला के कोई एक सौ रुपय माहवार हो जाते थे जो तीनों के लिए बहुत काफ़ी थे।
मकान छोटा था, मगर ठीक था। ऊपर की मंज़िल में तुफ़ैल रहता था, निचली मंज़िल में ज़ैनब और उस का बाप। दोनों एक दूसरे का बहुत ख़याल रखते थे। अल्लाह दित्ता उसे ज़्यादा काम नहीं करने देता था। चुनांचे मुँह अंधेर उठ कर वह सहन में झाड़ू दे कर चूल्हा सुलगा देता था कि ज़ेनब का काम कुछ हल्का हो जाये। वक़्त मिलता तो दो तीन घड़े भर कर घड़ौंची पर रख देता था।
ज़ेनब ने अपने शहीद ख़ाविंद को कभी याद नहीं किया था। ऐसा मालूम होता था जैसे वो उस की ज़िंदगी में कभी था ही नहीं। वो ख़ुश थी। अपने बाप के साथ बहुत ख़ुश थी। बाज़ औक़ात वो उस से लिपट जाती थी......तुफ़ैल के सामने भी। और उस को ख़ूब चूमती थी।
सुग़रा अपने बाप से ऐसे चहल नहीं करती थी...... अगर मुम्किन होता तो वो उस से पर्दा करती। इस लिए नहीं कि वो कोई ना-महरिम था। नहीं...... सिर्फ़ एहतिराम के लिए...... उस के दिल से कई दफ़ा ये दुआ उठती थी। “या परवरदिगार...... मेरा बाप मेरा जनाज़ा उठाए।”
बाज़ औक़ात कई दुआएं उल्टी साबित होती हैं। जो ख़ुदा को मंज़ूर था, वही होना था। ग़रीब सुग़रा के सर पर ग़म-ओ-अंदोह का एक और पहाड़ टूटना था।
जून के महीने दोपहर को दफ़्तर के किसी काम पर जाते हुए तप्ती हुई सड़क पर अल्लाह रक्खा को ऐसी लू लगी कि बे-होश हो कर गिर पड़ा। लोगों ने उठाया। हस्पताल पहुंचाया मगर दवा दारू ने कोई काम न किया।
सुग़रा बाप की मौत के सदमे से नीम पागल हो गई। उस ने क़रीब क़रीब आधे बाल नोच डाले। हम-साइयों ने बहुत दम-दिलासा दिया मगर ये कारगर कैसे होता...... वो तो ऐसी कश्ती के मानिंद थी जो उस का बादबान हो न कोई पतवार और बीज मंजधार के आन फंसी हुई।
पटियाला के वो अफ़्सर जिन्हों ने मरहूम अल्लाह रक्खा को मुलाज़मत दिलवाई थी, फ़रिश्ता रहमत साबत हुए। उन को जब इत्तिला मिली तो दौड़े आए। सब से पहले उन्हों ने ये काम किया कि सुग़रा को मोटर में बिठा कर घर छोड़ आए और बीवी से कहा कि वो इस का ख़्याल रखे। फिर हस्पताल में जा कर उन्हों ने अल्लाह रक्खा के ग़ुसल वग़ैरा का वहीं इंतिज़ाम किया और दफ़्तर वालों से कहा कि वो उस को दफ़ना आएं।
अल्लाह दित्ता को अपने भाई के इंतिक़ाल की ख़बर बड़ी देर के बाद मिली। बहर-हाल, वो लाहौर आया और पूछता पाछता वहां पहुंच गया जहां सुग़रा थी। उस ने अपनी भतीजी को बहुत दम दिलासा दिया, बहलाया। सीने के साथ लगाया, प्यार किया। दुनिया की बे-सबाती का ज़िक्र किया। बहादुर बनने को कहा, मगर सुग़रा के फटे हुए दिल पर इन तमाम बातों का क्या असर होता। ग़रीब ख़ामोश अपने आँसू दोपट्टे में ख़ुश्क करती रही।
अल्लाह दित्ता ने अफ़्सर साहब से आख़िर में कहा। “मैं आप का बहुत शुक्र गुज़ार हूँ। मेरी गर्दन आप के एहसानों तले हमेशा दबी रहेगी। मरहूम की तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का आप ने बंद-ओ-बस्त किया। फिर ये बच्ची जो बिलकुल बे-आसरा रह गई थी, इस को आप ने अपने घर में जगह दी...... ख़ुदा आप को इस का अज्र दे...... अब में उसे अपने साथ लिए जाता हूँ। मेरे भाई की बड़ी क़ीमती निशानी है।”
अफ़्सर साहब ने कहा। “ठीक है...... लेकिन तुम अभी इसे कुछ देर और यहां रहने दो...... तबीयत सँभल जाये तो ले जाना।”
अल्लाह दित्ता ने कहा। “हुज़ूर! मैं ने इरादा किया है कि इस की शादी अपने लड़के से करूंगा और बहुत जल्द!”
अफ़्सर साहब बहुत ख़ुश हुए। “बड़ा नेक इरादा है...... लेकिन इस सूरत में जब कि तुम उस की शादी अपने लड़के से करने वाले हो, इस का इस घर में रहना मुनासिब नहीं। तुम शादी का बंद-ओ-बस्त करो। मुझे तारीख़ से मतला कर देना। ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से सब ठीक हो जाएगा।”
बात दुरुस्त थी। अल्लाह दित्ता वापस गुजरांवाला चला गया। ज़ैनब उस की ग़ैर-मौजूदगी में बड़ी उदास हो गई थी। जब वो घर में दाख़िल हुआ तो वो उस से लिपट गई और कहने लगी कि उस ने इतनी देर क्यों लगाई?
अल्लाह दित्ता ने प्यार से उसे एक तरफ़ हटाया। “अरे बाबा, आना जाना किया है...... क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़नी थी। सुग़रा से मिलना था, उसे यहां लाना था।”
ज़ैनब न मालूम क्या सोचने लगी। “सुग़रा को यहां लाना था।” एक दम चौंक कर। “हाँ......सुग़रा को यहां लाना था। पर वो कहाँ है?”
“वहीं है...... पटियाले के एक बड़े नेक दिल अफ़्सर हैं, उन के पास है। उन्हों ने कहा जब तुम इस की शादी का बंद-ओ-बस्त कर लोगे तो ले जाना” ये कहते हुए इस ने बीड़ी सुलगाई।
ज़ैनब ने बड़ी दिलचस्पी लेते हुए पूछा। “उस की शादी का बंद-ओ-बस्त कर रहे हो...... कोई लड़का है तुम्हारी नज़र में?”
अल्लाह दित्ता ने ज़ोर का कश लगाया। “अरे भई, अपना तुफ़ैल...... मेरे बड़े भाई की सिर्फ़ एक ही निशानी तो है...... मैं उसे किया ग़ैरों के हवाले कर दूँगा?”
ज़ैनब ने ठंडी सांस भरी। “तो सुग़रा की शादी तुम तुफ़ैल से करोगे?”
अल्लाह दित्ता ने जवाब दिया। “हाँ...... क्या तुम्हें कोई एतराज़ है?”
ज़ैनब ने बड़े मज़बूत लहजे में कहा। “हाँ...... और तुम जानते हो, क्यों है...... ये शादी हर्गिज़ नहीं होगी!”
अल्लाह दित्ता मुस्कुराया। ज़ैनब की ठोढ़ी पकड़ कर इस ने उस का मुँह चूमा। “पगली...... हर बात पर शक करती है...... और बातों को छोड़, आख़िर में तुम्हारा बाप हूँ।”
ज़ैनब ने बड़े ज़ोर से हून्ह की। “बाप!” और अंदर कमरे में जा कर रोने लगी।
अल्लाह दित्ता उस के पीछे गया और उस को पुचकारने लगा।
दिन गुज़रते गए। तुफ़ैल फ़रमां-बर्दार लड़का था। जब उस के बाप ने सुग़रा की बात तो वो फ़ौरन मान गया। आख़िर तीन चार महीने के बाद तारीख़ मुक़र्रर हो गई...... अफ़्सर साहब ने फ़ौरन सुग़रा के लिए एक बहुत अच्छा जोड़ा सिलवाया जो उसे शादी के दिन पहनना था। एक अँगूठी भी ले दी। फिर उस ने मोहल्ले वालों से अपील की कि वो एक यतीम लड़की की शादी के लिए जो बिलकुल बे-सहारा है, हस्ब-ए-तौफ़ीक़ कुछ दें।
सुग़रा को क़रीब क़रीब सभी जानते थे और उस के हालात से वाक़िफ़ थे, चुनांचे उन्हों ने मिल मिला कर उस के लिए बड़ा अच्छा जहेज़ तैय्यार कर दिया।
सुग़रा दुल्हन बनी तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि तमाम दुख जमा हो गए हैं और उस को पीस रहे हैं। बहरहाल, वो अपने ससुराल पहुंची जहां उस का इस्तिक़बाल ज़ैनब ने क्या, कुछ इस तरह कि सुग़रा को उसी वक़्त मालूम हो गया कि वो उस के साथ बहनों का सा सुलूक नहीं करेगी बल्कि सास की तरह पेश आएगी।
सुग़रा का अंदेशा दुरुस्त था। इस के हाथों की मेहंदी अभी अच्छी तरह उतरने भी न पाई थी कि ज़ैनब ने उस से नौकरों के काम लेने शुरू कर दिए। झाड़ू वो देती। बर्तन वो मांझती। चूल्हा वो झोंकती। पानी वो भर्ती। ये सब काम वो बड़ी फुर्ती और बड़े सलीक़े से करती, लेकिन फिर भी ज़ैनब ख़ुश ना होती। बात बात पर उस को डाँटती डपटती, झिड़कती रही।
सुग़रा ने दिल में तहय्या कर लिया था, वो ये सब कुछ बर्दाश्त करेगी और कभी हर्फ़-ए-शिकायत ज़बान पर न लाएगी, क्यों कि अगर उसे यहां से धक्का मिल गया तो उस के लिए और कोई ठिकाना नहीं था।
अल्लाह दित्ता का सुलूक अलबत्ता इस से बुरा नहीं था। ज़ैनब की नज़र बचा कर कभी कभार वो उस को प्यार कर लेता था और कहता था कि वो कुछ फ़िक्र न करे। सब ठीक हो जाएगा।
सुग़रा को इस से बहुत ढारस होती। ज़ैनब जब कभी अपनी किसी सहेली के हाँ जाती और अल्लाह दित्ता इत्तिफ़ाक़ से घर पर होता तो वो उस से दिल खोल कर प्यार करता। उस से बड़ी मीठी मीठी बातें करता। काम में उस का हाथ बटाता। इस के वास्ते उस ने जो चीज़ें छुपा कर रखी होती थीं, देता और सीने के साथ लगा कर उस से कहती। “सुग़रा, तुम बड़ी प्यारी हो!”
सुग़रा झेंप जाती। दर-अस्ल वो इतने पुर-जोश प्यार की आदी नहीं थी। उस का मरहूम बाप अगर कभी उसे प्यार करना चाहता था तो सिर्फ़ उस के सर पर हाथ फेर दिया करता था या इस के कंधे पर हाथ रख कर ये दुआ दिया करता था। “ख़ुदा मेरी बेटी के नसीब अच्छे करे।”
सुग़रा तुफ़ैल से बहुत ख़ुश थी। वो बड़ा अच्छा ख़ाविंद था। जो कमाता था, उस के हवाले कर देता था, मगर सुग़रा ज़ैनब को दे देती थी, इस लिए कि वो उस के क़हर-ओ-ग़ज़ब से डरती थी।
तुफ़ैल से सुग़रा ने ज़ेनब की बद-सुलूकी और उस के सास ऐसे बरताओ का कभी ज़िक्र नहीं किया था। वो सुलह-ए-कुल थी। वो नहीं चाहती थी कि इस के बाइस घर में किसी क़िस्म की बद-मज़्गी पैदा हो। और भी कई बातें थीं जो वो तुफ़ैल से कहना चाहती तो कह देती मगर उसे डर था कि तूफ़ान बरपा हो जाएगा। और तो इस में से बच कर निकल जाऐंगे मगर वो अकेली इस में फंस जाएगी , और उस की ताब ना ला सकेगी।
ये ख़ास बातें उसे चंद रोज़ हुए मालूम हुई थीं और वो काँप काँप गई थी। अब अल्लाह दित्ता उसे प्यार करना चाहता तो वो अलग हट जाती, या दोड़ कर ऊपर चली जाती, जहां वो और तुफ़ैल रहते थे।
तुफ़ैल को जुमा की छुट्टी होती थी। अल्लाह दित्ता को इतवार की। अगर ज़ैनब घर पर होती तो वो जल्दी जल्दी काम काज ख़त्म कर के ऊपर चली जाती। अगर इत्तिफ़ाक़ से इतवार को ज़ैनब कहीं बाहर गई होती तो सुग़रा की जान पर बनी रहती। डर के मारे उस से काम न होता, लेकिन ज़ैनब का ख़याल आता तो उसे मजबूरन काँपते हाथों से धड़कते दिल से तौअन-व-करहन सब कुछ करना पड़ता। अगर वो खाना वक़्त पर न पकाए तो उस का ख़ाविंद भूका रहे क्यों कि वो ठीक बारह बजे अपना शागिर्द रोटी के लिए भेज देता था।
एक दिन इतवार को जब कि ज़ैनब घर पर नहीं थी, और वो आटा गूँध रही थी, अल्लाह दित्ता पीछे से दबे पांव आया और खलनडरे अंदाज़ में उस की आँखों पर हाथ रख दिए। वो तड़प कर उठी, मगर अल्लाह दित्ता ने उसे अपनी मज़बूत गिरिफ़्त में ले लिया।
सुग़रा ने चीख़ना शुरू कर दिया मगर वहां सुनने वाला कौन था। अल्लाह दित्ता ने कहा। “शोर मत मचाओ। ये सब बे-फ़ाइदा है...... चलो आओ!”
वो चाहता था कि सुग़रा को उठा कर अंदर ले जाये। कमज़ोर थी मगर ख़ुदा जाने उस में कहाँ से इतनी ताक़त आ गई कि अल्लाह दित्ता की गिरिफ़्त से निकल गई और हांपती काँपती ऊपर पहुंच गई। कमरे में दाख़िल हो कर उस ने अंदर से कुंडी चढ़ा दी।
थोड़ी देर के बाद ज़ैनब आ गई। अल्लाह दित्ता की तबीयत ख़राब हो गई थी। अंदर कमरे में लेट कर उस ने ज़ैनब को पुकारा। वो आई तो उस से कहा। “इधर आओ, मेरी टांगें दबाओ...... ज़ैनब उचक कर पलंग पर बैठ गई और अपने बाप की टांगें दबाने लगी...... थोड़ी देर के बाद दोनों के सांस तेज़ तेज़ चलने लगे।
ज़ैनब ने अल्लाह दित्ता से पूछा। “क्या बात है? आज तुम अपने आप में नहीं हो”
अल्लाह दित्ता ने सोचा कि ज़ैनब से छुपाना फ़ुज़ूल है, चुनांचे उस ने सारा माजरा बयान कर दिया। ज़ैनब आग बगूला हो गई। “क्या एक काफ़ी नहीं थी...... तुम्हें तो श्रम न आई, पर अब तो आनी चाहिए थी...... मुझे मालूम था कि ऐसा होगा, इसी लिए मैं शादी के ख़िलाफ़ थी...... अब सुन लो कि सुग़रा इस घर में नहीं रहेगी!”
अल्लाह दित्ता ने बड़े मिस्कीन लहजे में पूछा। “क्यों?”
ज़ैनब ने खुले तौर पर कहा। “मैं इस घर में अपनी सौतन देखना नहीं चाहती!”
अल्लाह दित्ता का हलक़ ख़ुश्क हो गया। इस के मुँह से कोई बात न निकल सकी।
ज़ैनब बाहर निकली तो उस ने देखा कि सुग़रा सहन में झाड़ू दे रही है। चाहती थी कि इस से कुछ कहे मगर ख़ामोश रही।
इस वाक़े को दो महीने गुज़र गए...... सुग़रा ने महसूस किया कि तुफ़ैल उस से खिचा खिचा रहता था। ज़रा ज़रा सी बात पर उस को शक की निगाहों से देखता था। आख़िर एक दिन आया कि उस ने तलाक़ नामा उस के हाथ में दिया और घर से बाहर निकाल दिया।
(1954)

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