
1)
धन्य धन्य, हे ध्वनि के धनी कवींद्र!
भावलोक के ठाकुर, उदित रवींद्र,
सारे भेदों के अभेद को खोल,
लिया जगत् का तुमने मर्म टटोल-
हृदय सबके छुए,
प्राण सबके हुए ।।
(2)
दर्शन से कृतकृत्य हुए हम आज।
यही माँगते सविनय सहित समाज,
आज रहे हैं नाता अपना तोड़,
विविध सृष्टि से हम, उसको दो जोड़।
और किससे कहें?
मौन कैसे रहें? ।।
(3)
नग निर्झर, तरु, पशु विहंग के संग,
मिला हुआ था कभी रंग में रंग।
प्रेमसूत्रा वह, हाय! रहा हैं टूट,
अपनों से हम आज रहे हैं छूट।
कवे! करुणा करो,
बहे जाते धरो ।।
(4)
नित्य विश्वसंगीत तुम्हारे कान।
सुनते हैं, यह बात गए सब जान,
उसके झोंकों का करके संचार,
खोलो सबके आज हृदय के द्वार,
भाव जिसमें भरें,
प्रेम जिससे करें ।।
(5)
हँसने में हों हम कुसुमों के अंग,
चहकें हम भी पिक चातक के संग,
रोने में दें दीन दुखी का साथ,
मन को अपने रक्खें सबके हाथ
यही वर दीजिए
लोक यश लीजिए ।।
(ना. प्र. पत्रिका, अप्रैल, 1919)
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments