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नगर से दूर कुछ गाँव की-सी बस्ती एक

Ram Chandra ShuklaRam Chandra Shukla
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नगर से दूर कुछ गाँव की-सी बस्ती एक,
हरे-भरे खेतों के समीप अति अभिराम,
जहाँ पत्राजाल अंतराल से झलकते हैं,
लाल खपरैल, श्वेत छज्जों के सँवारे धाम।

बीचो बीच वट-वृक्ष खड़ा हैं विशाल एक,
झूलते हैं बाल कभी जिसकी जटाएँ थाम,
चढ़ी मंजु मालती-लता हैं जहाँ छाई इुई,
पत्थर की पट्टियों की चौकियाँ पड़ी हैं श्याम।

बैठते हैं नित्य यहाँ धर्म के धुरीण एक,
क्षत्रिय कुलीन वृद्ध 'भद्र'1 भीष्म के समान,
नाना इतिहास और पुराण के प्रसंग यहाँ,
छिडे हुए रहते हैं करते पवित्रा कान।

नीम-तले पास ही पुरोहित का द्वार वह,
रहती हैं जहाँ शिष्य-मंडली विराजमान;
पढे-लिखे लोगों का निवास ही विशेष यहाँ,
घर हैं दो-चार गोप, नापित भी गुणवान।

पंडित 'श्रीविंध्यजी' की मधुर, सरस वाणी,
भारत की भारती की ज्योति को जगाती हैं;
वीथियों में स्वच्छ शुभ्र शिष्यों की फिरती हुई,
मंडली पुराना दृश्य सामने फिराती हैं।

परम पुनीत रीति नीति-भरी 'भद्रजी की,
द्वापर की छाया वट-छाया बीच छाती हैं;
यों इस भूखंड की निराली आर्य-माधुरी का,
नूतन करालता न लोप कर पाती हैं।

चहल-पहल सदा रहती हैं, सोहते हैं,
प्रकृति के बाँधे रुचि-रंग में सने समाज;
छाया छिन्न हुई, धूप छिटकी छटा के साथ,
दूबों पर ओप ओस-कण की रही विराज।

जम गई मंडली सयानों की सहास मुख,
जिन्हें हैं नचाता नहीं आज कोई काम-काज;
चल पड़ी चर्चा चटकीली चित-चाह-भरी,
घड़ी कोई अड़ी जान पड़ती नहीं हैं आज।

देखो यह टोली जो कुमारों की निकली अब,
बोली औ ठठोली के निकालती अनेक ढंग;
युगल 'प्रमोद बंधु' और 'वृक' आगे चले,
पीछे मैं 'अरुणजी' को लाता हूँ ढकेले संग।

फिर वे न-जाने किस बात पर लौट पडे,
मुँह को लटकाते झुंझलाते किए भ्रूभंग;
हँस-हँस लोटते हैं उधर 'प्रमोद बंधु',
बीच में मैं रहता हूँ देख यह दृश्य दंग।

जाते हैं पूर्व पथ पकडे हुए 'पुष्कर' का,
पनस-रसाल-जाल-बीच से बिचरते;
दोनों ओर फैली हरियाली हृदयों में,
ढली पड़ती हैं, पैर आगे आप से उभरते ।

नंदन-वन-वीथी का खंड यह साथ लिए,
आते हम मानो स्वर्गधाम से उतरते;
चलते हैं संग में उमंग-भरे साथी सब,
छेड़ किसी खूसट को अट्टहास करते।

छोड़ पथ 'पुष्कर' के कोने पर आए अब,
पीपल की डाल जहाँ दूर तक छाई हैं;
मंडप हैं शिव का पुराना एक नीम वहीं,
घाट भी हैं आगे बँधा देता दिखलाई हैं।

दाहने कदंब और बाएँ हैं अशोक खड़ा,
बीचो बीच टूटी हुई ढालुवाँ जुड़ाई हैं;
नीम, आम लगे हुए टीलों पर तीन ओर,
कोने पर कुटी एक साधु की बनाई हैं।

दक्षिण की ओर उस टीले पर देख पडे,
'हरिकेश'7 हाथ को उठाए औ' पुकारते;
गन्ने कुछ हाथ में वे उनके, सो बाँट लिए,
जोत उन्हें साथ अब आगे हैं सिधारते।

खेतों में घुमाती चली जाती हैं ढुर्री यह,
'शरपत्रा' ओर जहाँ नित्य ही पधारते;
चंदन से चर्चित कलेवर ले 'नंदनजी',
मधुर-मधुर छंद मुख से उचारते।

भूरी, हरी घास आसपास, फूली सरसों दे,
पीली-पीली बिंदियों का चारों ओर हैं पसार;
कुछ दूर विरल, फिर और आगे,
एक रंग मिला चला गया पीत-पारावार।

गाढ़ी हरी श्यामता की तुंग राशि-रेखा घनी,
बाँधती हैं दक्षिण की ओर उसे घेर घार;
जोड़ती हैं जिसे खुले नीले नभमंडल से,
धुधली-सी नीली नगमाला उठी धुँआधार।

लगती हैं चोटियाँ वे अति ही रहस्यमयी,
पास ही में होगा बस यहीं कहीं देवलोक;
बार बार दौड़ती हैं दृष्टि उस धूँधली सी ,
छाया बीच ढूँढ़ने को अमर-विलास-ओक।

ओट में अखाडे वहीं होगें वे पुरंदर के,
अप्सराएँ नाच रही होंगी जहाँ ताली ठोंक;
सुनने को सुंदर संगीत वह मंद-मंद,
बुध्दि की नहीं हैं अभी कहीं कोई रोक-टोक।

अंकित नीलाभरक्त, श्वेत नील सुमनों से,
मटर के फैले हुए घने हरे जाल में;
फलियाँ हैं करतीं संकेत जहाँ मुड़ते हैं;
और अधिकार का न ज्ञान इस काल में।

बैठते हैं प्रीति-भोज हेतु आसपास सब,
पक्षियों के साथ इस भरी हुई थाल में;
हाँक पर एक साथ पंखों ने सराटे भरे,
हम मेड़-पार हुए एक ही उछाल में।

सूखती तलैया के चारो ओर चिपकी हुई,
लाल लाल काइयों की भूमि पार करते;
गहरे पडे ग़ोपद के चिन्ह से अंकित जो,
श्वेत बक जहाँ हरी दूब में बिचरते।

बैठ कुछ काल एक पास के मधूक-तले,
मन में सन्नाटे का निराला सुर भरते;
आए 'शरपत्रा' के किनारे जहाँ रूखे खुले
टीले कँकरीले हैं हिमंत में निखरते।

श्यामल, सघन अमराइयों के बीच जहाँ,
धौले, मटियाले घर देखने में आते हैं;
करते निवास उसी ग्राम में हैं 'नंदनजी',
नारद-सा दिव्य रूप नित्य जो दिखाते हैं।

पच्छिम की ओर उस छोटे-से सरोवर के,
पार जब दृष्टि हम अपनी दौड़ाते हैं;
पड़ता हैं दिखाई धाम पूज्य 'वागीशजी' का,
बात-बात में जो हास्य-रस बरसाते हैं।

दर्शन की लालसा से सीधे मुडे उसी ओर,
गङ्ढों और खाइयों का कुछ भी न ध्यान कर;
टेढे-मेढे मेड़ छोड़ चलते हैं खेतों-बीच,
बोलता हैं कोई, तो न मानते हैं तिल-भर।

बीच से चबूतरे के निकला हैं पीपल जो,
आए वहाँ बैठे मिले साथ दोनों विप्रवर;
ठोकर खा जड़ की ज्यों बोले हम 'पंडितजी!,'
हँसे वे हमारे इस झुकते प्रणाम पर।

('माधुरी', मार्च, 1925)

 

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