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मैंने सुनी हैं, टूटे हुए मन्दिरों में कैद
भीमाकार घंटियों की ध्वनियाँ
मैंने पाई है अपनी आस्थाविहीन आत्मा में कैद
वाणी, जिसे प्रलयपूर्व निस्तब्धता निगल गई
मैंने लिखा है, उजड़े हुए उद्यानों में कैद
गीत, जो कोकिल-कंठ में ही मृत हुआ, नहीं अमृत हुआ
कभी खिली ही नहीं
कहीं भी (ऐसा लगता है)
आम्र-मंजरियाँ
और, अन्ततः मैं सुनता हूँ
(सच है, अपने ही गीतों पर सिर धुनता हूँ)
वह शब्द, जो तुमने कभी कहा नहीं
वह शब्द, जिसका उत्तर मैंने कभी दिया नहीं
वह शब्द ही अभिशप्त है
और हम-तुम (ऐसा लगता है)
मौन से जकड़े हैं
दोराहे पर खडे़ हैं
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