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तुलादान राजिन्दर सिंह बेदी

Rajinder Singh BediRajinder Singh Bedi
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तुलादान राजिन्दर सिंह बेदी
धोबी के घर कहीं गोरा चिट्टा छोकरा पैदा हो जाए तो उस का नाम बाबू रख देते हैं। साधू राम के घर बाबू ने जन्म लिया और ये सिर्फ़ बाबू की शक्ल-ओ-सूरत पर ही मौक़ूफ़ नहीं था, जब वो बड़ा हुआ तो उस की तमाम आदतें बाबुओं जैसी थीं। माँ को हिक़ारत से “ए यू” और बाप को चल-बे कहना उस ने न जाने कहाँ से सीख लिया था। वो उस की रऊनत से भरी हुई आवाज़, फूँक फूँक कर पाँव रखना, जूतों समेत चोके में चले जाना, दूध के साथ बालाई न खाना, सभी सिफ़ात बाबुओं वाली ही तो थीं। जब वो तहक्कुमाना अंदाज़ से बोलता और चल-बे कहता। तो साधू राम... ख़ी ख़ी... बिलकुल बाबू, कह कर अपने ज़र्द दाँत निकाल देता और फिर ख़ामोश हो जाता।
बाबू जब सुख नंदन, अमृत और दूसरे अमीर-ज़ादों में खेलता तो किसी को मालूम न होता कि ये उस माला का मनका नहीं है। सच तो ये है कि ईश्वर ने सब जीव जन्तों को नंगा कर के इस दुनिया भेज दिया है। कोई बोली ठोली नहीं दी। ये नादार लख-पती, महा ब्राह्मण, भनोट, हरिजन, लंगवा फ़र्नीका सब कुछ बाद में लोगों ने ख़ुद ही ईजाद किया है।
बुधई के पुरदा में सुख नंदन के माँ बाप खाते पीते आदमी थे और साधूराम और दूसरे आदमी उन्हें खाते पीते देखने वाले... सुख नंदन का जन्म-दिन आया तो पुर्दा के बड़े बड़े नेता गगन देव भंडारी, डाल चंद, गणपत महा ब्राह्मण वग़ैरा खाने पर मदऊ किए गए। डाल चंद और गणपत महा ब्राह्मण दोनों मोटे आदमी थे और क़रीब क़रीब हर एक दावत में देखे जाते थे। उन की उभरी हुई तोंद के नीचे पतली सी धोती में लंगोट, भारी भरकम जिस्म पर हल्का सा जनेऊ, लंबी चोटी, चंदन का टीका देख कर बाबू जलता था, और भला ये भी कोई जलने की बात थी। शायद एक नन्हा सा नाज़ुक बदन बाबू बनने के बाद इन्सान एक बदज़ेब बे-डोल सा पण्डित बनना चाहता है... और पण्डित बनने के बाद एक पस्त ज़मीर गुनाहगार इन्सान और अछूत... डाल चंद और गणपत महा ब्राह्मण के चलन के मुतअल्लिक़ बहुत सी बातें मशहूर थीं। ये इन्सानी फ़ित्रत की नैरंगी हर जगह करिश्मे दिखाती है।
बाबू ने देखा, जहाँ भंडारी और महा ब्राह्मण, भनोट आए हुए थे, वहाँ उमदाँ मरासिन, हरखू, जड़ई दादा कारिंदे और दो तीन झूटी पत्तलें और दूने उठाने वाले झीवर भी दिखाई दे रहे थे। जब दस पंद्रह आदमी खाने से फ़ारिग़ हो जाते तो झीवर पतलों और दूनों से बची-कुची चीज़ें एक जगह इकट्ठी करते। जमादारनी सेहन में एक जगह चादर का एक पल्लू बिछाए बैठी थी। वो सब बची कुची चीज़ें, हलवा, दाल, तोड़े हुए लुक़्मे, पकोड़ियाँ, मिले हुए आलू मटर और चावल उस बिछी हुई चादर या एलूमीनियम के एक बड़े से ज़ंग-आलूदा तसले में डाल देते। उस के सामने सब चीज़ें खिचड़ी देख कर बाबू न रह सका। बोला।
जमादारनी... कैसे खाओगी ये सब चीज़ें?
जमादारनी हंस पड़ी, नाक सुकेड़ती हुई बोली। जैसे तुम रोटी खाते हो।
इस अजीब और सादा से जवाब से बाबू की रऊनत को ठेस लगी। बोला कितनी ना-समझ हो तुम... इतनी सी बात न समझें। तभी तो तुम लोग जूतों में बैठने के लायक़ हो।
हलाल ख़ोरी की अकड़ ज़बान-ए-ज़द-अवाम है। माथे पर तेवर चढ़ाते हुए जमादारनी बोली।
और तुम तो अर्श पर बैठने के लायक़ हो... है न?
यूँ ही ख़फ़ा हो गईं तुम तो। बाबू बोला। मेरा मतलब था। सालन में हलवा, पकोड़ियों में आलू मटर, पुलाव में फ़िर्नी, ये तमाम चीज़ें खिचड़ी नहीं बन गईं क्या?
जमादारनी ने कोई जवाब न दिया।
भंडारी और महा ब्राह्मण को अच्छी जगह पर बिठाया गया। वो साधुओं की सी रूद्र कश की माला गले में डाले कंखियों से बार-बार उमदाँ और जमादारनी की तरफ़ देखते रहे। उमदाँ, जमादारनी के क़रीब ही बैठी थी। हरखू, जड़ई, दादा धूप में बैठे हुए खाते पीते आदमियों का मुंह देख रहे थे। कब वो सब खा चुकीं तो उन्हें भी कुछ मयस्सर हो। बाबू ने देखा, उमदाँ के क़रीब ही ईंधन की ओट में उस की अपनी माँ बैठी थी। उस के क़रीब बर्तन मांझने के लिए राख और नीम सख़्ता उपले पड़े थे और राख से उस का लहंगा ख़राब हो रहा था। क़मीस भी ख़राब हो रही थी। ख़ैर! क़मीस की तो कोई बात न थी। वो तो किसी की थी और धुलने के लिए आई थी। एक दफ़ा धो कर बाबू की माँ ने पहन ली, तो कुछ बिगड़ नहीं गया। परमात्मा भला करे बादलों का कि उन ही की मेहरबानी से ऐसा मौक़ा मयस्सर हुआ।
जब अपने दोस्त सुखी नंदन को मिलने के लिए बाबू ने आगे बढ़ना चाहा तो एक शख़्स ने उसे चपत दिखा कर वहीं रोक दिया। और कहा। ख़बरदार! धोबी के बच्चे... देखता नहीं किधर जा रहा है। बाबू थम गया। सोचने लगा। कि उस के साथ लड़े या न लड़े। झीवर का तनूमंद जिस्म देख कर दब गया और यूँ भी वो अभी बचा था। भला इतने बड़े आदमी का क्या मुक़ाबला करेगा। उस ने एक उदास उचटती हुई नज़र से अच्छी जगह बैठ कर खाने वालों और नीम सख़्ता उपलों की राख और जूतों में पड़े हुए इन्सानों को देखा। और दिल में कहा, अगर्चे सब नंगे पैदा हुए हैं, मगर एक कारिंदे और ब्राह्मण में कितना फ़र्क़ है।
फिर दिल में कहने लगा। सुख नंदन और बाबू में कितना फ़र्क़ है, और हल्की सी एक टीस उस के कलेजा में उठी। हक़ीक़त तो बाबू के सामने थी। मगर इतनी मकरूह शक्ल में कि वो ख़ुद उसे देखने से घबराता था। बाबू दिल ही दिल में कहने लगा। हम लोगों के वजूद ही से तो ये लोग जीते हैं। दिन की तरह उजले उजले कपड़े पहनते हैं... दर-अस्ल बाबू को भूक लग रही थी। वही पकोड़ियों, हलवा मांडे के ख़याल में। मकरूह हक़ीक़त तो क्या वो अपने वजूद से भी बे-नियाज़ हो गया। गर्म गर्म पूरियों की सब्र-आज़मा ख़ुशबू उस के दिमाग़ में बसी जा रही थी। अचानक उस की नज़र उमदाँ पर पड़ी। उमदाँ की नज़र भी टोकरी में घी में बसी हुई पूरियों के साथ साथ जाती थी। जब सुख नंदन की माँ क़रीब से गुज़री तो उस को मुतवज्जे करने के लिए उमदाँ बोली।
जजमानी... ज़रा हलवाई को डांटो तो... ए देखतीं नहीं। कितना घी बह रहा है जमीन पर।
जजमानी कड़क कर बोली।
अरे ओ किशनू... हलवाई को कहना। ज़रा पूरियाँ कड़ाही में दबाए रखे।
बाबू हंसने लगा। उमदाँ कुछ शर्मिंदा सी हो गई। बाबू जानता था कि उमदाँ वो सब बातें महज़ इस वजह से कह रही है कि उस का अपना जी पूरियाँ खाने को बहुत चाहता है। गो जज्मानी की तवज्जो को खींचने वाले फ़िक़रे से उस की ख़्वाहिश का पता नहीं चलता। वो मुतज्जिब था और सोच रहा था कि जिस तरह उस ने उमदाँ के इन ग़ैर मुतअल्लिक़ लफ़्ज़ों में छुपे हुए असली मतलब को पालिया है, क्या ऐसा भी मुम्किन है कि उस की ख़ामोशी में कोई उस की बात को पाले। आख़िर ख़ामोशी गुफ़्तुगू से ज़्यादा मानी-ख़ेज़ होती है।
उस वक़्त सुख नंदन तुल रहा था। ख़ूबसूरत तराज़ू के एक पलड़े में चारों तरफ़ देख मुस्कुराता जा रहा था। दूसरी तरफ़ गंदुम का अंबार लगा था। गंदुम के अलावा चावल बासमती, चुने, उड़द, मोटे माश और दूसरी इस क़िस्म की अजनास भी मौजूद थीं। सुख नंदन को तौल तौल कर लोगों में अजनास बाँटी जा रही थीं। बाबू की माँ ने भी पल्लू बिछाया। उसे गंदुम की धड़ी मिल गई। वो सुख नंदन की दराज़े-ए-उम्र की दुआएँ माँगती हुई उठ बैठी। बाबू ने नफ़रत से अपनी माँ की तरफ़ देखा। गोया कह रहा हो, छी! तुम्हें कपड़ों की धुलाई पर क़नाअत ही नहीं, तभी तो हर एक की मैल निकालने का काम ईश्वर ने तुम्हारे सुपुर्द कर दिया है, और तुम भी जमादारनी की तरह जूतों में बैठने के लायक़ हो। तुम्हारी कोख से पैदा हो जाने वाले बाबू को चिलचिलाती-धूप में खड़ा रहना पड़ता है। आगे बढ़ने पर लोग उसे चपत दिखाते हैं। हाय! तेरी ये फटी हुई, बे-क़नाअत आँखें, गंदुम से नहीं क़ब्र की मिट्टी से पर होंगी। क़रीब से माँ गुज़री तो बाबू बोला। ऐ बू!
फिर सोचने लगा। राम जाने मेरा जन्म-दिन क्यूँ नहीं आता। मेरी माँ मुझे कभी नहीं तौलती। जब सुख नंदन को उस के जन्म-दिन के मौक़े पर तौल कर अजनास का दान किया जाता है, तो उस की सभी मुसीबतें टल जाती हैं। उसे सर्दी में बर्फ़ से ज़्यादा ठंडे पानी और गर्मियों में भेजा जला देने वाली धूप में खड़ा नहीं होना पड़ता। बालों में लगाने के लिए ख़ास लखनऊ से मंगवाया हुआ आमले का तेल मिलता है। जेब पैसों से भरी रहती है। ब-ख़िलाफ़ उस के मैं तमाम दिन साबुन की झाग बनाता रहता हूँ। सुख नंदन इसलिए साबुन के बुलबुलों को पसंद करता है कि वो बुलबुले और उन में चमकने वाले रंग उसे हर-रोज़ नहीं देखने पड़ते, यूँ कपड़े नहीं धोने होते... सुखी की दुनिया को कितनी ज़रूरत है। ख़ास कर उस के माँ बाप को। मेरे माँ बाप को मेरी ज़रा भी ज़रूरत नहीं। वर्ना वो मुझे भी जन्म-दिन के मौक़े पर यूँही तौलते। और जब से नन्ही पैदा हो गई है... कहते हैं बिला ज़रूरत दुनिया में भी कोई पैदा नहीं हुआ। ये बाथू, जो नाली के किनारे उग रहा है, ब-ज़ाहिर एक फ़ुज़ूल सा पौदा है। जब उस की भुजिया बनती है तो मज़ा ही आ जाता है... और पूरियाँ!
बाबू की माँ ने आवाज़ दी।
बाबू... अरे ओ बाबू।
उस वक़्त सुख नंदन, बाबू को देख कर मुस्कुरा रहा था। अब बाबू को उम्मीद बंधी कि वो ख़ूब ज़ियाफ़त उड़ा सकेगा। बाबू उस चुभने वाली धूप को भी भूल गया जो बरसात के बाद थोड़े अर्से के लिए निकलती है और उसी अर्से में अपनी तब-ओ-ताब ख़त्म कर देना चाहती है। उस ने माँ की आवाज़ पर कान न धरा और कान धरता भी क्यूँ? माँ को उस की क्या ज़रूरत थी। ज़रूरत होती तो वो उस का जन्म-दिन न मनाती। वो तो शायद उस दिन को कोसती होगी जिस दिन वो पैदा हो गया... अगर्चे बाथू की भुजिया बड़ी ज़ाइक़ा-दार होती है।
बाबू... अरे ओ बाबू के बच्चे। आता क्यूँ नहीं? बाबू की माँ की आवाज़ आई।
बाबू जाओ... अभी मैं नहीं आ सकता। सुख नंदन ने कहा। और फिर एक मग़रूराना अंदाज़ से अपने ज़र्द-ओ-ख़स्ता कोट और बाबू की तरफ़ देखता हुआ बोला। कल आना भाई... देखते नहीं हो, आज मुझे फ़ुर्सत है? जाओ।
उमदाँ को पूरियाँ मिल गई थीं। वो जज्मानी को फ़र्शी सलाम कर रही थी। बाबू ने सोचा था कि शायद मुस्कुराता हुआ सुखी नंदन उस की ख़ामोशी में उस के मन की बात पालेगा। मगर सुख नंदन को आज बाबू का ख़याल कहाँ आता था। आज हर छोटे बड़े को सुखी की ज़रूरत थी। लेकिन सुखी को किसी की ज़रूरत न थी। अपनी अज़मत और बाबू के सादा और बोसीदा, टाट के से कपड़ों को देख कर वो शायद उस से नफ़रत करने लगा था। अपनी अदीम अलफ़रसती का इज़हार करते हुए उस ने गोया बाबू की रही सही रऊनत को मिट्टी में मिला दिया। फिर बाबू की माँ की करख़त आवाज़ आई।
बाबू... तेरा सत्यानास, तूँ (ताऊन) मारे... घुस जाए तेरे पेट में माता काली... आता क्यूँ नहीं। दो सौ कपड़े पड़े हैं... लंबर-गीर ने दाले। मैं तो रो रही हूँ तेरी जान को...
बाबू को ये महसूस हुआ कि न सिर्फ सुख नंदन ने उस के जज़्बात को ठेस लगाई है और वो उस के साथ कभी नहीं खेलेगा, बल्कि उस की माँ, जिसके पेट से वो नाहक़ पैदा हुआ था, वही औरत जिस से उसे दुनिया में सब से ज़्यादा प्यार की तवक़्क़ो है, वो उस से ऐसा सुलूक करती है। काश! मैं इस दुनिया में पैदा ही न होता। अगर होता तो यूँ बाबू न होता। मेरी मिट्टी यूँ ख़राब न होती। आख़िर में सुखी से शक्ल और अक़्ल में बढ़ चढ़ कर नहीं?
सुख नंदन के जन्म-दिन को एक महीना हो गया। तुलादान को आई हुई गंदुम पिसी। पिस कर उस की रोटी बनी। बाबू के माँ बाप ने खाई। मगर बाबू ने वो रोटी खाने से इनकार कर दिया। जितनी देर तुलादान का आटा घर में रहा, वो रोटी अपने चचा के हाँ खाता रहा। वो नहीं चाहता था कि जिस तरह मांगे ताँगे की चीज़ें खा खा कर उस के माँ बाप की ज़हनियत ग़ुलामाना हो गई है, वो रोटी खा कर उस में भी वो बात आ जाए। गाड़े पसीने की कमाई हुई रोटी से तो दूध टपकता है। मगर हराम की कमाई से ख़ून... और गु़लामी ख़ून बन कर उस के रग-ओ-रेशे में समा जाए, ये कभी न होगा। साधू राम हैरान था। बाबू की माँ हैरान थी। चचा जिस पर उस की रोटी का बोझ जबरन पड़ गया था, हैरान थे। चची नाक भौं चढ़ाती थी, और जब घर में उस अनोखे बाईकॉट का चर्चा होता तो साधूराम यकदम कपड़ों पर लम्बरगीर ने छोड़ देता और ज़र्द ज़र्द दाँत निकालते हुए कहता।
ख़ी ख़ी... बाबू है न।
सुख नंदन ने अब बाबू में एक नुमायाँ तब्दीली देखी। बाबू जिसका काम से जी उचाट रहता था, अब दिन-भर घाट पर अपने बाप का हाथ बटाता। बाबू अब उस के साथ नहीं खेलता था। हरिया के तालाब के किनारे एक बड़ी सी क्रोटन चप्पल पर वो और इस के दो एक साथी स्कूल के वक़्त के बाद कान पता खेला करते थे। अब वो जगह बिलकुल सूनी पड़ी रहती थी। क़रीब बैठे हुए एक साधू जिनकी कुटिया में बच्चे अपने बस्ते रख देते थे। कभी कभी चरस का एक लंबा कश लगाते हुए पूछ लेते। बेटा! अब क्यूँ नहीं आते खेलने को। और सुखी नंदन कहता। बाबू नाराज़ हो गया है बावा... फिर महात्मा जी हंसते और चरस का एक दम उलटा देने वाला कश लगाते और खाँसते हुए कहते।
ऊहों... हूँ... वाह-रे पट्ठे... आख़िर बाबू जो हुआ तो!
इस वक़्त सुखी नंदन ग़रूर से कहता अकड़ता है बाबू तो अकड़ा करे... उस की औक़ात किया है। धोबी के बच्चे की?
...मगर बच्चों को अपने साथ खेलने के लिए कोई न कोई चाहिए। खेल में किसी तरह की ज़ात पात और दर्जा की तमीज़ नहीं रहती। हक़ीक़त में चंद ही साल की तो बात थी, जब कि वो यकसाँ नंगे पैदा हुए थे और उस वक़्त तक उन में नादार, लख-पती, महा ब्राह्मण, भनोट, हरीजन... और इस क़िस्म की फ़ुज़ूल बातों के मुतअल्लिक़ ख़याल आराई करने की सलाहियत पैदा नहीं हुई थी।
सुख नंदन अपनी तमाम मस्नूई अज़मत को केंचुली की तरह उतार फेंक बाबू के हाँ गया। बाबू उस वक़्त दिन-भर काम कर के थक कर सो रहा था। माँ ने झिंजोड़ कर जगाया। उठ बेटा!... अब खेलने कभी न जाओगे क्या? सुखी आया है। बाबू आँखें मलता हुआ उठा। चारपाई के नीचे उस ने बहुत से मैले कुचैले और उजले उजले कपड़े देखे। कपड़े जो कि पैदाइश ही से एक सुखी नंदन और बाबू में इम्तियाज़-ओ-तफ़र्रुक़ा पैदा कर देते हैं... बाबू चारपाई पर से फ़र्श पर बिखरे हुए कपड़ों पर कूद पड़ा। दिल में एक लतीफ़ गुदगुदी सी पैदा हुई। कई दिनों से वो खेला नहीं था और अब शायद अपनी इक्तिसाबी रऊनत पर पछता रहा था। बाबू का जी चाहता था कि फलाँग कर बरामदे से बाहर चला जाए और सुखी से बग़लगीर... और क्या इन्सान की इन्सान के लिए मोहब्बत कपड़ों की हद से नहीं बढ़ जाती? क्या सुखी केंचुली नहीं उतार आया था? बाबू चाहता था कि दोनों भाई रहे सहे कपड़े उतार कर एक से हो जाएँ और ख़ूब खेलें, ख़ूब... बरामदे में कबूतरों के काबुक के पीछे जाली के दर्मियान में से बाबू की नज़र सुखी पर पड़ी, जो पुर-उम्मीद नज़रें उस के घर के दरवाज़े पर गाड़े खड़ा था। यकायक बाबू को सुखी के जन्म-दिन की बात याद आ गई। वो दिल मसूस कर रह गया। कबूतरों की जाली में उसे बहुत सी बैटें नज़र आ रही थीं और बहुत से सिराज, लुका और देसी क़िस्म के कबूतर घूँ घूँ करते हुए अपनी गर्दनों को फुला रहे थे। एक नर फूल फूल कर माद्दा को अपनी तरफ़ माइल कर रहा था। बाबू ने भी अपनी गर्दन को फुलाया और घूँ घूँ की सी आवाज़ पैदा करता हुआ चारपाई पर वापस जा लेटा। फिर उसे ख़याल आया। सुखी धूप में खड़ा जल रहा है। मगर फिर वो एक फ़ैसला-कुन लायहा-ए-अमल मुरत्तब करते हुए चारपाई पर आँखें बंद कर के लेट गया। आख़िर वो भी तो कितना ही अरसा उस के घर के सेहन में बरसात की चिलचिलाती-धूप में खड़ा रहा था और उस ने इस की कोई पर्वा न की थी... अमीर होगा तो अपने घर में।
उसे कह दो... वो नहीं आएगा माँ... कहो उसे फ़ुर्सत नहीं है फ़ुर्सत बाबू ने कहा।
श्रम तो नहीं आती है। माँ ने कहा। इतने बड़े सेठों का लड़का आवे तुझे बुलाने के लिए और तो यूँ पड़ रहे... गधा!
बाबू ने कोहनियाँ हिलाते हुए कहा। मैं नहीं जाने का, माँ।
माँ ने बुरा भला कहा। तो बाबू बोला। सच सच कह दूँ माँ। मैं जानता हूँ, मेरी किसी को भी ज़रूरत नहीं.... वावेला करोगी, तो मैं कहीं चला जाऊँगा।
माँ का मुँह खुला का खुला रह गया। उस वक़्त नन्ही बुलंद आवाज़ से रोने लगी और माँ उसे दूध पिलाने में मश्ग़ूल हो गई।
बुधई के पुर्वा में सीतला (चेचक) का ज़ोर था। पुरवा की औरतें बंदरियों की तरह अपने अपने बच्चों को कलेजों से लगाए फुर्ती थीं। पड़ोसन की दहलीज़ तक नहीं फाँदती थीं। कहीं बू, न पकड़ लें और सीतला माता तो यूँ भी बड़ी ग़ुस्सैली हैं... डाल चंद की लड़की, महा ब्राह्मण के दो भतीजे, सबको सीतला माता ने दर्शन दिया। उन की माएँ घंटों उनके सिरहाने बैठ कर सच्चे मोतिया के हार रख कर गौरी मय्या गाती रहें और देवी माता से प्रार्थना करती रहीं कि उन पर अपना गु़स्सा न निकाले। जब बच्ची राज़ी हो जाते, तो मंदिर में माथा टेकने के लिए ले जातीं। माता तो हर एक क़िस्म की ख़्वाहिश पूरी करती थी। जब सीतला का ग़ुस्सा टला और बू कुछ कम हुई, तो पुर्वा वालों ने सीतला की मूर्ती बनाई। उसे ख़ूब सजाया। सुखी नंदन के बाप ने मूंगे की माला सीतला माता के गले में डाली। सबने मिल कर इज़्ज़त-ओ-तकरीम से माता को मंदिर से निकाला और सजी हुई बहली में बिराजमान किया और बहली को घसीटते हुए गानो से बाहर छोड़ने के लिए ले गए। पुर्वा के सब बूढ़े बच्चे जुलूस में इकट्ठे हुए, पीतल की खड़ता लीं, ढोल ढमके बजते जा रहे थे। लोग चाहते थे कि क्रोधी माता को हरिया के तालाब के पास महात्मा जी की कुटिया के क़रीब उन ही की निगह-बानी में छोड़ दिया जाए ,ताकि माता उस गाँव से किसी दूसरे गाँव का रुख करे। वो माता को ख़ुशी ख़ुशी रवाना करना चाहते थे, ताकि उन पर उलटी न बरस पड़े। सुखी भी जुलूस के साथ गया। बाबू भी शामिल हुआ। न बाबू को सुखी के बुलाने की जुर्रत पैदा हुई, न सुखी को बाबू के बुलाने की। हाँ कभी कभी वो कन्खियों से एक दूसरे को देख लेते थे।
हरिया के तालाब के पास ही धोबी घाट था। एक छोटी सी नहर के ज़रिये तालाब का पानी घाट की तरफ़ खींच लिया जाता था। घाट था बहुत लंबा चौड़ा। क़रीब के कस्बों में से धोबी कपड़े धोने आया करते थे। उसी घाट पर बाबू और उस के भाई बंदु, बाप दादा वही एक गाना, उसी पुरानी सुरताल से गाते हुए कपड़े धोए जाते। एक दिन घाट पर सारा दिन बाबू, सुखी के बग़ैर शिद्दत की तन्हाई महसूस करता रहा। कभी कभी अकेला ही क्रोटन चील के बल खाते हुए तनों पर चढ़ जाता और उतर आता। गोया सुखी के साथ कान पता खेल रहा हो। खेल में लुत्फ़ न आया तो वो ईंटों के ढेर में रखी हुई सीतला माता की मूर्ती को देखने लगा और पूछने लगा। आया वो इस गाँव से चली गई हैं य नहीं। माता कुछ को रूप (बद-शक्ल) नाराज़, दिखाई देती थीं। शाम को बाबू घर आया तो उसे हल्का हल्का तप था, जो कि बढ़ता गया। बाबू को अपनी सुध-बुध न रही। एक दफ़ा बाबू को होश आया तो देखा माँ ने मोतिया का एक हार उस की चारपाई पर रखा था। क़रीब ही ठंडे पानी से भरा हुआ कोरा घड़ा था। घड़े के मुँह पर भी मोतिया के हार पड़े थे और माँ एक नया ख़रीदा हुआ पंखा हल्के हल्के हिला हिला कर मुँह में गोरी मैय्या गुनगुना रही थी। पंखा मरते हुए आदमी की नब्ज़ की तरह आहिस्ता-आहिस्ता हिल रहा था और अलगनी पर सुर्ख़ फुलकारियों के पर्दे बाबू की बूढ़ी दादी की झुर्रियों की तरह लटक रहे थे और ये सामान कुछ माता की इज़्ज़त की वजह से किया गया था। बाबू ने अपनी पलकों पर मनों बोझ महसूस किया। उसे तमाम बदन पर कांटे चुभ रहे थे और यूँ महसूस होता था, जैसे उसे किसी भट्टी में झोंक दिया गया हो।
दो तीन दिन तो बाबू ने पहलू तक न बदला। एक दिन ज़रा इफ़ाक़ा सा हुआ। सिर्फ उतना कि वो आँखें खोल कर देख सकता था। आँख खुली तो उसने देखा। सुखी और उस की माँ दरवाज़े के क़रीब बैठे हुए थे। सेठानी ने नाक पर दुपट्टा ले रक्खा था। दर-अस्ल वो दरवाज़े में इसलिए बैठे थे कि कहीं बू न पकड़ लें। मगर बाबू ने समझा, आज उन लोगों का ग़ुरूर टूटा है। उस ने दिल में एक ख़ुशी की लहर महसूस की। एक ज्योतिशी जी साधूराम को बहुत सी बातें बता रहे थे। उन्होंने नारियल, बताशे, खुमनी, मँगवाई। साधूराम कभी कभार अपना हाथ बाबू के तपते हुए माथे पर रख देता, और कहता...
बाबू... ओ बाबू... बेटा बाबू?
जवाब न मिलता। तो एक मुक्का सा उस के कलेजा में लगता और वो गुम हो जाता।
बाबू ने ब-मुश्किल तमाम कांटों के बिस्तर पर पहलू बदला। फूल हाथ से सरका कर सिरहाने की तरफ़ रख दिए। गले में तल्ख़ी सी महसूस की। हाथ बढ़ाया तो माँ ने पानी दिया।बाबू ने देखा। उस के एक तरफ़ गंदुम का ढेर लगा हुआ था। ज्योतिशी जी के कहने पर बाबू की माँ ने उसे आहिस्ता से उठाया और एक तरफ़ लटकते हुए तराज़ू के एक पलड़े में रख दिया। तराज़ू के दूसरे पलड़े में गंदुम और दूसरी अजनास डालनी शुरू कीं। बाबू ने अपने आपको तुलता हुआ देखा तो दिल में एक ख़ास क़िस्म का रुहानी सुकून महसूस किया। चार दिन के बाद आज उस ने पहली मर्तबा कुछ कहने के लिए ज़बान खोली और इतना कहा।
अम्माँ... कुछ गंदुम और माश की दाल दे दो। सुखी की माँ को... कब से बैठी है बेचारी।
साधूराम ने फिर अपना हाथ बाबू के तपते हुए माथे पर रख दिया। उस की आँखों से आँसुओं की चंद बूँदें गिर कर फ़र्श पर बिखरे हुए कपड़ों में जज़्ब हो गईं। साधूराम ने कपड़ों को एक तरफ़ हटाया, और बोला।
पंडित-जी... दान से बोझ टल जाएगा?... मैं तो घर-बार बेच दूं... पंडित-जी...
बाबू की माँ ने सिसकियाँ लेते हुए सेठानी जी को कहा।
मालकिन... कल नैनीताल जाओगी?... कल... नहीं तो परसों मिलेंगे कपड़े... हाय! मालकिन! तुम्हें कपड़ों की पड़ी है।
बाबू को कुछ शक सा गुज़रा। उस ने फिर तकलीफ़ सह कर पहलू बदला और बोला।
अम्माँ... अम्माँ... आज मेरा जन्म-दिन है?
अब साधू राम के सोते फूट पड़े। एक हाथ से गले को दबाते हुए वो भर्राई हुई आवाज़ में बोला।
हाँ बाबू बेटा... आज जनम-दिन है तेरा... बाबू... बेटा!
...बाबू ने अपने जलते हुए जिस्म और रूह पर से तमाम कपड़े उतार दिए। गोया नंगा हो कर सुखी हो गया और मनों बोझ महसूस करते हुए आँखें आहिस्ता-आहिस्ता बंद कर लें।

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