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ग्रहण राजिन्दर सिंह बेदी

Rajinder Singh BediRajinder Singh Bedi
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ग्रहण राजिन्दर सिंह बेदी
रूपो, शिब्बू, कुत्थू और मुन्ना... होली ने असाढ़ी के काइस्थों को चार बच्चे दिए थे और पांचवाँ चंद ही महीनों में जनने वाली थी। उस की आँखों के गर्द गहरे सियाह हलक़े पड़ने लगे। गालों की हड्डियाँ उभर आईं और गोश्त उनमें पिचक गया। वो होली, जिसे पहले-पहल मय्या प्यार से चाँद रानी कह कर पुकारा करती थी और जिसकी सेहत और सुनदरता का रसीला हासिद था, गिरे हुए पत्ती की तरह ज़र्द और पज़-मुर्दा हो चुकी थी।
आज रात चाँद गरहन था। सर-ए-शाम चांद, गरहन के ज़म्रे में दाख़िल हो जाता है। होली को इजाज़त न थी कि वो कोई कपड़ा फाड़ सके.... पेट में बच्चे के कान फट जाएँगे। वो सी न सकती थी... मुंह सिला बच्चा पैदा होगा। अपने मैके ख़त न लिख सकती थी.... उस के टेढ़े-मेढ़े हुरूफ़ बच्चे के चेहरे पर लिखे जाएंगे.... और अपने मैके ख़त लिखने का उसे बड़ा चाव था।
मैके का नाम आते ही उस का तमाम जिस्म एक न मालूम जज़्बे से काँप उठता। वो मैके थी तो उसे सुसराल का कितना चाव था। लेकिन अब वो सुसराल से इतनी सैर हो चुकी थी कि वहाँ से भाग जाना चाहती थी। इस बात का उसने कई मर्तबा तहय्या भी किया लेकिन हर दफ़ा ना-काम रही। उस के मैके असाढ़ी गानो से पच्चीस मेल के फ़ासिला पर थे। समुंद्र के किनारे हर फूल बंदर पर शाम के वक़्त स्टीमर लॉन्च मिल जाता था और साहिल के साथ साथ डेढ़ दो घंटे की मुसाफ़त के बाद उस के मैके गानो के बड़े मंदिर के ज़ंग ख़ुर्दा क्लस दिखाई देने लगते।
आज शाम होने से पहले रोटी, चोका बर्तन के काम से फ़ारिग़ होना था। मय्या कहती थी ग्रहण से पहले रोटी वग़ैरा खा लेनी चाहिए, वगरना हर हरकत पेट में बच्चे के जिस्म-ओ-तक़्दीर पर असर-अंदाज़ होती है। गोया वो बद-ज़ेब, फ़राग़ नथुनों वाली मटीली मय्या अपनी बहू हमीदा बानो के पेट से किसी अकबर-ए-आज़म की मुतवक़्क़े है। चार बच्चों, तीन मर्दों, दो औरतों, चार भैंसों पर मुश्तमिल बड़ा कुम्बा और अकेली होली.... दोपहर तक तो होली बर्तनों का अंबार साफ़ करती रही। फिर जानवरों के लिए बनूले, खली और चने भिगोने चली, हत्ता कि उस के कूल्हे दर्द से फटने लगे और बग़ावत पसंद बच्चा पेट में अपनी बे-बिज़ाअत मगर होली को तड़पा देने वाली हरकतों से एहतिजाज करने लगा। होली शिकस्त के एहसास से चौकी पर बैठ गई। लेकिन वो बहुत देर तक चौकी या फ़र्श पर बैठने के क़ाबिल न थी और फिर मय्या के ख़याल के मुताबिक़ चौड़ी चकली चौकी पर बहुत देर बैठने से बच्चे का सर चपटा हो जाता है। मूंढा हो तो अच्छा है। कभी कभी होली मय्या और काइस्थों की आँख बचा कर खाट पर सीधी पड़ जाती और एक शिकम पर कुतिया की तरह टांगों को अच्छी तरह से फैला कर जमाई लेती और फिर उसी वक़्त काँपते हुए हाथ से अपने नन्हे से दोज़ख़ को सहलाने लगती।
ये ख़याल करने से कि वो सीतल की बेटी है, वो अपने आपको रोक न सकती थी। सीतल सारंग देव ग्राम का एक मुतमव्विल साहूकार था और सारंग देव ग्राम के नवाह के बीस गांवों के किसान उस से ब्याज पर रुपया लेते थे। इस के बावजूद उसे काइसथों के हाँ ज़लील किया जाता था। होली के साथ कुत्तों से भी बुरा सुलूक होता था। काइस्थों को तो बच्चे चाहिएँ। होली जहन्नम में जाए। गोया सारे गुजरात में ये काइस्थ ही कल वधु (कल को बढ़ाने वाली.... बहू) का सही मतलब समझते थे।
हर साल डेढ़ साल के बाद वो एक नया कीड़ा घर में रेंगता हुआ देख कर ख़ुश होते थे,और बच्चे की वजह से खाया पिया होली के जिस्म पर असर अंदाज़ नहीं होता था। शायद उसे रोटी भी इसी लिए दी जाती थी कि पेट में बच्चा मांगता है और इसी लिए उसे हमल के शुरू चाट और अब फल आज़ादाना दिए जाते थे.....
“देवर है तो वो अलग पीट लेता है” होली सोचती थी “और सास के कोसने मार पेट से कहीं बुरे हैं, और बड़े काइस्थ जब डाँटने लगते हैं तो पाँव तले से ज़मीन निकल जाती है। उन सबको भला मेरी जान लेने का क्या हक़ है?.... रसीला की बात तो दूसरी है। शास्त्रों ने उसे परमात्मा का दर्जा दिया है। वो जिस छुरी से मारे उस छुरी का भला!.... लेकिन क्या शास्त्र किसी औरत ने बनाए हैं? और मय्या की तो बात ही अलाहदा है। शास्त्र किसी औरत ने लिखे होते तो वो अपनी हम-जिंस पर उस से भी ज़्यादा पाबंदीयाँ आइद करती.....।”
....राहू अपने नए भेस में निहायत इत्मिनान से अमृत पी रहा था। चाँद और सूरज ने विष्णु महाराज को उस की इत्तिला दी और भगवान ने सुदर्शन से राहू के दो टुकड़े कर दिए। उस का सर और धड़ दोनो आसमान पर जा कर राहू और केतू बन गए। सूरज और चाँद दोनो उनके मक़रूज़ हैं। अब वो हर साल दो मर्तबा चाँद और सूरज से बदला लेते हैं और होली सोचती थी। भगवान के खेल भी न्यारे हैं.... और राहू की शक्ल कैसी अजीब है। एक काला सा राक्षस, शेर पर चढ़ा हुआ देख कर कितना डर आता है। रसीला भी तो शक्ल से राहू ही दिखाई देता है। मुन्ना की पैदाइश पर अभी चालीसवाँ भी न नहाई थी तो आ मौजूद हुआ.... क्या मैं ने भी उस का क़र्ज़ा देना है?
उस वक़्त होली के कानों में माँ बेटे के आने की भनक पड़ी। होली ने दोनो हाथों से पेट को संभाला और उठ खड़ी हुई और जल्दी से तवे को धीमी धीमी आँच पर रख दिया। अब उस में झुकने की ताब न थी कि फूंकें मार कर आग जला सके। उसने कोशिश भी की लेकिन उस की आँखें फट कर बाहर आने लगीं।
रसीला एक नया मरम्मत किया हुआ छाज हाथ में लिए अंदर दाख़िल हुआ। उस ने जल्दी से हाथ धोए और मुँह में कुछ बड़बड़ाने लगा। उस के पीछे मय्या आई और आते ही बोली।
“बहू..... अनाज रखा है क्या?”
होली डरते डरते बोली “हाँ हाँ..... रक्खा है.... नहीं रक्खा, याद आया, भूल गई थी मय्या”....
“तो बैठी कर क्या रही है, नबाब जादी?”
होली ने रहम जूयाना निगाहों से रसीले की तरफ़ देखा और बोली “जी, मुझसे अनाज की बोरी हिलाई जाती है कहीं?”
मय्या ला-जवाब हो गई और यूँ भी उसे होली की निसबत उस के पेट में बच्चे की ज़्यादा पर्वा थी। शायद इसी लिए होली की आँखों में आँखें डालते हुए बोली....
“तूने सुरमा क्यूँ लगाया है री?.... रांड, जानती भी है आज गहन है जो, बच्चा अंधा हो जाए तो तेरे ऐसी बेसवा उसे पालने चलेगी?”
होली चुप हो गई और नज़रें ज़मीन पर गाड़े हुए मुँह में कुछ बड़बड़ाती गई। और सब हो जाए लेकिन रांड की गाली उस की बर्दाश्त से बाहर थी। उसे बड़बड़ाते देख कर मय्या और भी बकती झुकती चाबियों का गुच्छा तलाश करने लगी। एक मेले शमादान के क़रीब सुर्मा पीसने का खरल रक्खा हुआ था। उस में से चाबियों का गुच्छा निकाल कर वो भंडारे की तरफ़ चली गई। रसीले ने एक पुर-हवस निगाह से होली की तरफ़ देखा। उस वक़्त होली अकेली थी। रसीले ने आहिस्ता से आँचल को छोड़ा। होली ने डरते डरते दामन झटक दिया और अपने देवर को आवाज़ें देने लगी। गोया दूसरे आदमी की मौजूदगी चाहती है। इस कैफ़ियत में मर्द को ठुकरा देना मामूली बात नहीं होती। रसीला आवाज़ को चबाते हुए बोला।
“मैं पूछता हूँ भला इतनी जल्दी काहे की थी?”
“जल्दी कैसी?”
रसीला पेट की तरफ़ इशारा करते हुए बोला। “यही.... तुम भी तो कुतिया हो, कुतिया।”
होली सहम कर बोली। “तो इस में मेरा क्या क़ुसूर है?”
होली ने नादानिस्तगी में रसीले को वहशी, बद-चलन, हवस-रान सभी कुछ कह दिया। चोट सीधी पड़ी। रसीले के पास इस बात का कोई जवाब न था। लाजवाब आदमी का जवाब चपत होती है और दूसरे लम्हे में उंगलियों के निशान होली के गालों पर दिखाई देने लगे।
उस वक़्त मय्या माश की एक टोकरी उठाए हुए भंडारे की तरफ़ से आई और बहू से बद-सुलूकी करने की वजह से बेटे को झिड़कने लगी। होली को रसीले पर तो गु़स्सा न आया, अलबत्ता मय्या की इस आदत से जल भुन गई.... “रांड, आप मारे तो उस से भी ज्यादा, और जो बेटा कुछ कहे तो हमदर्दी जताती है, बड़ी आई है”.....
होली सोचती थी कल रसीला ने मुझे इसलिए मारा था कि मैंने उस की बात का जवाब नहीं दिया, और आज इसलिए मारा है कि मैं ने बात का जवाब दिया है। मैं जानती हूँ वो मुझसे क्यूँ नाराज़ है। क्यूँ गालियाँ देता है। मेरे खाने पकाने, उठने बैठने में उसे क्यूँ सलीक़ा नहीं दिखाई देता.... और मेरी ये हालत है कि नाक में दम आ चुका है और मर्द औरत को मुसीबत में मुबतला कर के आप अलग हो जाते हैं, ये मर्द.....!
मय्या ने कुछ बासमती, दालें और नमक वग़ैरा रसोई में बिखेर दिया और फिर एक भीगी हुई तराज़ू में उसे तौलने लगी। तराज़ू गीला था, ये मय्या भी देख रही थी और जब बासमती चावल पेंदे में चिमट गए तो बहू मरती करती फूहड़ हो गई और आप इतनी सुघड़ कि नए दुपट्टे से पेन्दा साफ़ करने लगी। जब बहुत मैला हो गया तो दुपट्टे को सर पर से उतार कर होली की तरफ़ फेंक दिया और बोली।
“ले, धो डाल।”
अब होली नहीं जानती बेचारी कि वो रोटियाँ पकाए या दुपट्टा धोए। बोले या न बोले, हिले या न हिले, वो कुतिया है या नबाब जादी। उसने दुपट्टा धोने ही में मस्लिहत समझी। उस वक़्त चांद गरहन के ज़ुमरे में दाख़िल होने वाला ही होगा। बच्चा धुले हुए कपड़े की तरह चुरमुर सा पैदा होगा और अगर माह दो माह बाद बच्चे का बुरा सा चेहरा देख कर उसे कोसा जाए तो उस में होली का क्या क़ुसूर है?.... लेकिन क़ुसूर और बे-क़ुसूरी की तो बात ही अलाहदा है क्यूँ कि ये कोई सुनने के लिए तैयार नहीं कि उस में होली का गुनाह क्या है, सब गुनाह होली का है।
उसी वक़्त होली को सारंग देव ग्राम याद आ गया। किस तरह वो असोज के शुरू में दूसरी औरतों के साथ गरबा नाचा करती थी और भाबी के सर पर रखे हुए घड़े के सुराख़ों में से रौशनी फूट फूट कर दालान के चारों कोनों को मुनव्वर कर दिया करती थी। उस वक़्त सब औरतें अपने हिना मालीदा हाथों से तालियाँ बजाया करती थीं और गाया करती थीं....
मा हिंदी तवादी मालवी
एयूं रंग गियो गुजरात रे
मा हिंदी रंग लागीव रे
उस वक़्त वो एक उछलने कूदने वाली अल्हड़ छोकरी थी, एक बहर ओ क़ाफ़िया से आज़ाद नज़्म, जो चाहती थी पूरा हो जाता था। घर में सबसे छोटी थी। नबाब ज़ादी तो न थी और उस की सहेलियाँ.... वो भी अपने अपने क़र्ज़-ख़्वाहों के पास जा चुकी होंगी।
—सारंग देव ग्राम में गरहन के मौक़ा पर जी खोल कर दान पुन्य किया जाता है। औरतें इकट्ठी हो कर त्रिवेदी घाट पर अश्नान के लिए चली जाती हैं। फूल, नारियल, बताशे समुंद्र में बहाती हैं। पानी की एक उछाल मुँह खोले हुए आती है और सब फूल पत्तों को क़ुबूल कर लेती है। उस वक़्त के अश्नान से सब मर्द औरतों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो जाता है। उन गुनाहों का जिनका इर्तिकाब लोग गुज़श्ता साल करते रहे हैं, अश्नान से सब पाप धुल जाते हैं। बदन और रूह पाक हो जाती है। समुंद्र की लहर लोगों के सब गुनाहों को बहा कर दूर, बहुत दूर.... एक नामालूम, ना-क़ाबिल-ए-उबूर, नाक़ाबिल-ए-पैमाइश समुंद्र में ले जाती है..... एक साल बाद फिर लोगों के बदन गुनाहों से आलूदा हो जाते हैं, फिर गहना जाते हैं। फिर दिया की एक लहर आती है और फिर पाक-ओ-साफ़।
जब गरहन शुरू होता है और चांद की नूरानी इस्मत पर-दाग़ लग जाता है तो चंद लमहात के लिए चारों तरफ़ ख़ामोशी और फिर राम नाम का जाप शुरू होता है। फिर घंटे, नाक़ूस, शंख एक दम बजने लगते हैं। इस शोर-ओ-ग़ूग़ा में अश्नान के बाद सब मर्द औरतें जमघटे की सूरत में गाते बजाते हुए गानो वापस लूटते हैं।
गरहन के दौरान में ग़रीब लोग बाज़ारों और गली कूचों में दौड़ते हैं। लंगड़े बैसाखियाँ घुमाते हुए अपनी अपनी झोलियाँ और कशकोल थामे प्लेग के चूहों की तरह एक दूसरे पर गिरते पड़ते भागते चले जाते हैं, क्यूँकि राहू और केतू ने ख़ूबसूरत चांद को अपनी गिरफ़्त में पूरी तरह से जकड़ लिया है। नर्म-दिल हिंदू दान देता है ताकि ग़रीब चांद को छोड़ दिया जाये और दान लेने के लिए भागने वाले भिकारी छोड़ दो, छोड़ दो, दान का वक़्त है.... छोड़ दो का शोर मचाते हुए मीलों की मुसाफ़त तय कर लेते हैं।
चाँद,ग्रहण के ज़ुमरे में आने वाला ही था, होली ने बच्चों को बड़े काइस्थ के पास छोड़ा। एक मैली कुचैली धोती बाँधी और औरतों के साथ हर फूल बंदर की तरफ़ अश्नान के लिए चली।
अब मय्या, रसीला, बड़ा लड़का शीबू और होली सब समुंद्र की तरफ़ जा रहे थे। उनके हाथ में फूल थे। गजरे थे और आम के पत्ते थे और बड़ी अम्माँ के हाथ में रूद्र कश की माला के अलावा मुश्क-ए-काफ़ूर था, जिसे वो जला कर पानी की लहरों पर बहा देना चाहती थी, ताकि मरने के बाद सफ़र में उस का रास्ता रौशन हो जाए और होली डरती थी.... क्या उस के गुनाह समुंद्र के पानी से धोए धुल जाएँगे?
समुंद्र के किनारे घाट से पौन मील के क़रीब एक लॉन्च खड़ा था। वो जगह हर फूल बंदर का एक हिस्सा थी। बंदर के छोटे से ना-हमवार साहिल और एक मुख़्तसर से डाक पर कुछ टैन्डल ग़ुरूब-ए-आफ़ताब में रौशनी और अंधेरे की कशमकश के ख़िलाफ़ नन्हे नन्हे बेबिज़ात से ख़ाके बना रहे थे और लॉन्च के किसी केबिन से एक हल्की सी टिमटिमाती हुई रौशनी सीमाबदार पानी की लहरों पर नाच रही थी। उस के बाद एक चर्ख़ी सी घूमती हुई दिखाई दी। चंद एक धुँदले से साए एक अज़दहा नुमा रस्से को खींचने लगे। आठ बजे स्टीमर लॉन्च की आख़िरी सीटी थी। फिर वो सारंग देव ग्राम की तरफ़ रवाना होगा। अगर होली इस पर सवार हो जाए तो फिर डेढ़ दो घंटे में वो चांदनी में नहाते हुए गोया सदियों से आश्ना क्लस दिखाई देने लगीं.... और फिर वही अम्मां.... कुंवार-पन और गरबा नाच!
होली ने एक नज़र से शिबू की तरफ़ देखा। शिबू हैरान था कि उस की माँ ने इतनी भीड़ में झुक कर उस का मुँह क्यूँ चूमा और एक गर्म गर्म क़तरा कहाँ से उस के गालों पर आ पड़ा। उस ने आगे बढ़ कर रसीले की उंगली पकड़ ली। अब घाट आ चुका था जहाँ से मर्द और औरतें अलाहदा होती थीं। हमेशा के लिए नहीं, फ़क़त चंद घंटों के लिए.... उसी पानी की गवाही में वो अपने मर्दों से बांध दी गई थीं। पानी में भी किया पुर-असरार बईद उल-फ़हम ताक़त है.... और दूर से लॉन्च की टिमटिमाती हुई रौशनी होली तक पहुँच रही थी।
होली ने भागना चाहा मगर वो भाग भी तो न सकती थी। उसने अपनी हल्की सी धोती को किस कर बाँधा.... धोती नीचे की तरफ़ ढलक जाती थी.... आध घंटे में वो लॉन्च के सामने खड़ी थी। लॉन्च के सामने नहीं.... सारंग देव ग्राम के सामने..... वो क्लस, मंदिर के घंटे, लॉन्च की सीटी और होली को याद आया कि उस के पास तो टिकट के लिए भी पैसे नहीं हैं।
वो कुछ अरसे तक लॉन्च के एक कोने में बद-हवास हो कर बैठी रही। पौने आठ बजे के क़रीब एक टेन्डल आया और होली से टिकट मांगने लगा। टिकट न पाने पर वो ख़ामोशी से वहाँ से टल गया। कुछ देर बाद मुलाज़िमों की सरगोशियाँ सुनाई देने लगीं.... फिर अंधेरे में ख़फ़ीफ़ से हंसने और बातें करने की आवाज़ें आने लगीं। कोई कोई लफ़्ज़ होली के कान में भी पड़ जाता.... मुर्ग़ी.... दूले.... चाबियाँ मेरे पास हैं..... पानी ज़्यादा होगा....
इस के बाद चंद वहशियाना क़हक़हे बुलंद हुए और कुछ देर बाद तीन चार आदमी होली को लॉन्च के एक तारीक कोने की तरफ़ धकेलने लगे। उसी वक़्त आबकारी का एक सिपाही लॉन्च में वारिद हुआ, ऐन जब कि दुनिया होली की आँखों में तारीक हो रही थी, होली को उम्मीद की एक शुआ दिखाई दी। वो सिपाही सारंग देव ग्राम का ही एक छोकरा था और मैके के रिश्ते से भाई था। छः साल हुए वो बड़ी उमंगों के साथ गानो से बाहर निकला था और साबरमती फाँद कर किसी नामालूम देस को चला गया था। कभी कभी मुसीबत के वक़्त इन्सान के हवास बजा हो जाते हैं। होली ने सिपाही को आवाज़ से ही पहचान लिया। और कुछ दिलेरी से बोली।
“कुत्थू राम”।
कुत्थू राम ने भी सीतल की छोकरी की आवाज़ पहचान ली। बचपन में वो उस के साथ खेला था।
कुत्थू राम बोला....
“होले।”
होली यक़ीन से मामूर मगर भर्राई हुई आवाज़ में बोली “कुत्थू भय्या..... मुझे सारंग देव ग्राम पहुँचा दो....”।
कुत्थू राम क़रीब आया। एक टेण्डल को घूरते हुए बोला।
“सारंग देव जाओगी होले?” और फिर अपने सामने खड़े हुए आदमी से मुख़ातब होते हुए बोला। “तुमने उसे यहाँ क्यूँ रक्खा है भाई?”
टेण्डल जो सबसे क़रीब था बोला।
“बेचारी कोई दुखिया है। उस के पास तो टिकट के पैसे भी नहीं थे। हम सोच रहे थे हम उस की क्या मदद कर सकते हैं?”
कुत्थू राम ने होली को साथ लिया और लॉन्च से नीचे उतर आया। डाक पर क़दम रखते हुए बोला।
“होले..... क्या तुम असाढ़ी से भाग आई हो?”
“हाँ।”
“ये सर्राफ़ जादियों का काम है?..... और जो मैं काइस्थों को ख़बर कर दूँ तो?”
होली डर से काँपने लगी। वो ना तो नबाब जादी थी और न सर्राफ़ जादी। उस जगह और ऐसी हालत में वो कुत्थू राम को कुछ कह भी तो ना सकती थी। वो अपनी कमज़ोरी को महसूस करती हुई ख़ामोशी से समुंद्र की लहरों के तलातुम की आवाज़ें सुनने लगी। फिर उस के सामने लॉन्च के रस्से ढीले किए गए। एक हल्की सी वस्ल हुई और होले होले सारंग देव ग्राम होली की नज़रों से ओझल हो गया। उसने एक दफ़ा पीछे की जानिब देखा। लॉन्च की हल्की सी रौशनी में उसे झाग की एक लंबी सी लकीर लॉन्च का पीछा करती हुई दिखाई दी।
कुत्थू राम बोला “डरो नहीं होले.... मैं तुम्हारी हर मुम्किन मदद करूँगा। यहाँ से कुछ दूर नाव पड़ती है। पो फट्टे ले चलूँगा। यूँ घबराओ नहीं। रात की रात सराय में आराम कर लो।”
कुत्थू राम होली को सराय में ले गया। सराय का मालिक बड़ी हैरत से कुत्थू राम और उस के साथी को देखता रहा। आख़िर जब वो न रह सका, तो उस ने कुत्थू राम से निहायत आहिस्ता आवाज़ में पूछा।
“ये कौन हैं?”
कुत्थू राम ने आहिस्ता से जवाब दिया। “मेरी पत्नी है”।
होली की आँखें पथराने लगीं। एक दफ़ा उस ने अपने पेट को सहारा दिया और दीवार का सहारा ले कर बैठ गई। कुत्थू राम ने सराय में एक कमरा किराए पर लिया। होली ने डरते डरते उस कमरे में क़दम रखा। कुछ देर बाद कुत्थू राम अंदर आया तो उस के मुँह से शराब की बू आ रही थी....
समुंद्र की एक बड़ी भारी उछाल आई। सब फूल, बताशे, आम की टहनियाँ, गजरे और जलता हुआ मुश्क-ए-काफ़ूर बहा कर ले गई। उस के साथ ही इन्सान के मुहीब तरीन गुनाह भी लेती गई.... दूर, बहुत दूर, एक नामालूम, नाक़ाबिल-ए-उबूर, नाक़ाबिल-ए-पैमाइश समुंद्र की तरफ़... जहाँ तारीकी ही तारीकी थी.... फिर शंख बजने लगे। इस वक़्त सराय में से कोई औरत निकल कर भागी। सरपट, बगटुट... वो गिरती थी, भागती थी, पेट पकड़ कर बैठ जाती, हाँफती और दौड़ने लगती..... उस वक़्त आसमान पर चांद पूरा गहना जा चुका था। राहू और केतू दोनो ने जी भर कर क़र्ज़ा वसूल किया था। दो धुँदले से साये उस औरत की मदद के लिए सरासीमा इधर उधर दौड़ रहे थे.... चारों तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा था और दूर, असाढ़ी से हल्की हल्की आवाज़ें आ रही थीं।
दान का वक़्त है....
छोड़ दो..... छोड़ दो..... छोड़ दो.....
हर फूल बंदर से आवाज़ आई...
पकड़ लो.... पकड़ लो..... पकड़ लो....
छोड़ दो..... दान का वक़्त है.... पकड़ लो... छोड़ दो!!

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