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सेवानिवृत्ति की सीढ़ियों से उतरते हुए
धरती को छू रहे हैं पाँव
वानप्रस्थ और संन्यास की संधि पर खड़े
मेरे मन के कई आवरण टूट रहे हैं
तो ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य के पृथुलकाय ग्रंथ के नीचे दबी
काव्यप्रकाश की किताब के पीछे
जिस किसी कोने में छिपी
मेरी असावधानी के एक क्षण में
लौट आई अकस्मात् मेरे पास : मालवी।
जैसे क्रौंचपक्षी के वध पर
कवि का शोक
श्लोक में फूटा हुआ।
कोई दो तीन वाक्य मालवी के
पत्नी से बात करते हुए सहसा मेरे मुँह से निकल गए।
अब सोचता हूँ
कौन है वह
जो इस तरह अचानक मालवी बोल पड़ा है
वह इन साठ सालों में कहाँ था
मैं अपने भीतर झाँकता हूँ
उसे पहचानने के लिए...
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