कार्तिक की पूर्णिमा के उत्सव पर
काशी में गंगा के तट पर
विश्वनाथ के घर के आगे
जब मनती है देवदीपावली
गंगा अपनी लहरों पर तिरते असंख्य पावन दीपों से
आरती उतारती है शंकर महादेव की।
दियों की पाँतें लहरों पर सरकती हैं
अगणित दीपों की झिलमिलाहट में
जैसे आकाश से उतर आता है नक्षत्रों का चक्रवाल
गंगा के तल पर।
फिर तो आकाश के मंडप के नीचे
गंगा तट के रंगमंच पर
शंखों और नगाड़ों की तीव्र वादन में
अर्द्धनारीश्वर लास्य और तांडव एक साथ करते हैं
नौकाओं में बैठे विदेशी सैलानी
चकित होकर ताकते रह जाते है
एक और गंगा के जल में बिछती चाँदनी
चाँदी के सेतु दोनों पाटों को जोड़ते
उनके आस-पास फैली दीपों की क़तारें
और उनके बीच सरकती
सैंकड़ो नौकाएँ
(और एक अंश प्रक्षिप्त भी)
कोई जुआ खेल कर, कोई मदिरा पीकर
कोई पटाखे चलाकर
कोई बिजली की रोशनियों के वितान रचकर
कुछ और लोग पूजामंगल के शुभसंभार लजाकर
दीपोत्सव का आयोजन करते हैं
जिन्होंने अपने आपको दीपक बना लिया है
उनके लिए तो नित्य दीपावली है।
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