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निगाह-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-हुस्न-ए-फ़ितरत होती जाती है
तबीअ'त महरम-ए-राज़-ए-मोहब्बत होती जाती है
नुमायाँ शोख़ी-ए-रंग-ए-तबीअ'त होती जाती है
कि हर काफ़िर अदा से अब मोहब्बत होती जाती है
मोहब्बत आह क्या शय है मोहब्बत क्या कहूँ तुम से
मुझे मा'लूम दिल की क़द्र-ओ-क़ीमत होती जाती है
मिरा ज़ौक़-ए-परस्तिश है जुदा सारे ज़माने से
मोहब्बत करता जाता हूँ इबादत होती जाती है
मैं जितना ग़ौर करता हूँ निज़ाम-ए-बज़्म-ए-हस्ती पर
इसी निस्बत से ज़ाहिर अब हक़ीक़त होती जाती है
जफ़ा-ए-चर्ख़ कज-बुनियाद को राहत समझता हूँ
दलील-ए-राह-ए-इरफ़ाँ हर मुसीबत होती जाती है
क़यामत है कि अरबाब-ए-मोहब्बत उठते जाते हैं
नज़र वालों से ख़ाली बज़्म-ए-फितरत होती जाती है
वतन वालों से कोई काश कह दे 'राज़' ये जा कर
बहार-ए-ज़िंदगानी नज़्र-ए-ग़ुर्बत होती जाती है
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