जावेद का ख़त...लखनऊ से's image
2 min read

जावेद का ख़त...लखनऊ से

Piyush MishraPiyush Mishra
0 Bookmarks 999 Reads0 Likes

लाहौर के उस पहले ज़िले के, दो परगना में पहुँचे
रेशम गली के, दूजे कूचे के, चौथे मकाँ में पहुँचे
कहते हैं जिसको, दूजा मुलुक उस, पाकिस्ताँ में पहुँचे
लिखता हूँ ख़त मैं हिन्दोस्ताँ से, पहलू-ए-हुस्नाँ में पहुँचे
ओ हुस्नाँ...

मैं तो हूँ बैठा, ओ हुस्नाँ मेरी, यादों पुरानी में खोया
पल पल को गिनता, पल पल को चुनता, बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते, हिन्दोस्ताँ में, बातें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला, हिन्दोस्ताँ में यादें, तुम्हारी ये बोलें

ओ हुस्नाँ मेरी, ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्ताँ में
रहती हो नन्हीं कबूतर-सी गुम तुम जहाँ
ओ हुस्नाँ...
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्ताँ में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्नाँ...
होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्ताँ में हाँ
ओ हुस्नाँ...

वो हीर के राँझों, के नगमे मुझको, हर पल आ आ के सताए
वो बुल्ले शाह की, तकरीरों के, झीने-झीने साए
वो ईद की ईदी, लम्बी नमाज़ें, सेवइयों की झालर
वो दीवाली के दीये संग में, बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिसमें, संग-संग आँच लगाई
लोहड़ी का वो धुआँ जिसमें, धड़कन है सुलगाई

ओ हुस्नाँ मेरी ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआँ क्या अब भी निकलता है
जैसा निकलता था उस दौर में हाँ वहाँ
ओ हुस्नाँ...
हीरों के राँझों के नगमें क्या अब भी सुने जाते हैं हाँ वहाँ
ओ हुस्नाँ...
रोता है रातों में पाकिस्ताँ क्या वैसे ही जैसे हिन्दोस्ताँ
ओ हुस्नाँ...
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्ताँ में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्नाँ...
होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्ताँ में हाँ
ओ हुस्नाँ...

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts