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आये हैं पहाड़ जान आ गयी
देह में सुख मीठा-मीठा भर गयी
थक गयी है ज़िंदगी देते हिसाब
बीजों की तरह थे बिखरे घर कई
हिल रहे पत्ते सभी यहां-तहां
लोग कुछ छुपे हुए शायद वहां
आसरा जिनका है डर उनका ही है
वो न शर्मिंदा करें कहां-कहां
तान कर जो पांव लेटा सो गया
धरती पर एक दाग़ जैसा हो गया
रहगुज़र ही रहगुज़र है समझ कर
सर झुका कर रहगुज़र ही हो गया
सांस ली वृक्षों ने पत्ते कांप गये
वादे जितने भी थे सारे मिट गये
पक्षियों ने हाथ सिकोड़े हैं जब
टहनियों के अंग सब घायल हुए
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