ठाकुर का कुआँ's image
2 min read

ठाकुर का कुआँ

Om Prakash ValmikiOm Prakash Valmiki
0 Bookmarks 499 Reads0 Likes

पहाड़ खड़ा है

स्थिर सिर उठाए

जिसे देखता हूँ हर रोज़

आत्मीयता से


बारिश में नहाया

या फिर सर्द रातों की रिमझिम के बाद

बर्फ़ से ढका पहाड़

सुकून देता है


लेकिन जब पहाड़ थरथराता है

मेरे भीतर भी

जैसे बिखरने लगता है

न ख़त्म होने वाली आड़ी-तिरछी

ऊँची-नीची पगडंडियों का सिलसिला


गहरी खाइयों का डरावना अँधेरा

उतर जाता है मेरी साँसों में


पहाड़ जब धसकता है

टूटता मैं भी हूँ

मेरी रातों के अँधेरे और घने हो जाते हैं


जब पहाड़ पर नहीं गिरती बर्फ़

रह जाता हूँ प्यासा जलविहीन मैं

सूखी नदियों का दर्द

टीसने लगता है मेरे सीने में


यह अलग बात है

इतने वर्षों के साथ हैं

फिर भी मैं गैर हूँ

अनचिन्हें प्रवासी-पक्षी की तरह

जो बार-बार लौट कर आता है

बसेरे की तलाश में


मेरे भीतर कुनमुनाती चींटियों का शोर

खो जाता है भीड़ में

प्रश्नों के उगते जंगल में


फिर भी ओ मेरे पहाड़ !

तुम्हारी हर कटान पर कटता हूँ मैं

टूटता-बिखरता हूँ

जिसे देख पाना

भले ही मुश्किल है तुम्हारे लिए

लेकिन

मेरी भाषा में तुम शामिल हो

पारदर्शी शब्द बनकर !

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts