
गर्दूं काँपा थर्राई ज़मीं चैन उन बिन आई मुश्किल से
वो आह क़यामत थी शायद निकली जो मेरे टूटे दिल से
तुम दिल में चुभों कर तीर अपना क्यूँ खींचते हो मेरे दिल से
दो बिछड़े मिले इक मुद्दत के अब साथ छुटेगा मुश्किल से
आदाब-ए-मोहब्बत सहल नहीं आएँगी ये बातें मुश्किल से
बेहतर है के तुम तब्दील करो अपने दिल को मेरे दिल से
मतलब था यही जाते हो कहाँ बहलोगे कहीं तुम मुश्किल से
जन्नत ने हमें आवाज़ें दीं निकले जो हम उन की महफ़िल से
जम कर जो रहे ख़ाक रहने का नतीजा ख़ाक न था
ख़ूबी है यही अरमानों की आएँ दिल में निकलें दिल से
ये सोच समझ लो तुम पहले फिर अपनी नज़र को गर्दिश दो
पैवस्त रग-ए-जाँ में जो हुआ निकला है वो नावक मुश्किल से
दरिया-ए-मोहब्बत में ज़ाहिर मौजों में हम-दर्दी न हुई
जब डूब रही थी कश्ती-ए-दिल कुछ ख़ाक उड़ी थी साहिल से
मुश्ताक़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ने किया हसरत ने क्या क़िस्मत ने किया
अब उस को न पूछे मुझ से कोई देता हूँ उन्हें दिल किस दिल से
दुनिया में मुझे राहत न मिली मुमकिन है आदम में मिल जाए
जाता हूँ उसी मंज़िल की तरफ़ आया था मैं जिस मंज़िल से
जलवों का समाँ था एक तरफ़ आहों का धुआँ था एक तरफ़
मजनूँ ने ये देखा महमिल में लैला ने ये देखा महमिल से
हम क्यूँ कहें हम को क्या मतलब रूदाद-ए-मसाइब वो पूछें
उजड़े घर की टूटे दिल उजड़े घर से टूटे दिल से
इक दर्द-ए-जिगर की दो शक्लें दिल देने पे मालूम हुईं
बढ़ता है बहुत आसानी से घटता है निहायत मुश्किल से
सौ फ़ित्ने उठे सौ हश्र उठे उठने के लिए क्या कुछ न उठा
अब हम को ये सुनना बाक़ी है उठ जाओ हमारी महफ़िल से
ऐ ‘नूह’ मेरी कश्ती को ज़रा बचने का तरीक़ा समझा दो
तूफ़ान उठा कर दरिया में जाते हो कहाँ तुम साहिल से
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