साँप की तरह लहरदार और ज़हरीली थी वह सड़क
जिससे हो कर हम पहुँचते थे
बीच शहर के एक बड़े चौक से
दूसरे बड़े चौक तक
जहाँ एक भीमकाय घण्टाघर था
जो समय बताना भूल गया था
आने-जाने वालों को 1947 के बाद से
गो इसके इर्द-गिर्द
अब भी वक़्तन-फ़-वक़्तन सभाएँ होतीं
नारे बुलन्द करने वालों की
जुलूस सजते और कचहरी तक जाते
अपने ही जैसे एक आदमी को अर्ज़ी देने
जो बैठ गया था गोरे साहब की कुर्सी पर
अँधेरी थी यह सड़क
जिस पर कुछ ख़स्ताहाल मुस्लिम होटल थे
और उनसे भी ख़स्ताहाल कोठरियों की क़तारें
जिन पर टाट के पर्दे पड़े होते
जिनके पीछे से झलक उठती थीं
रह-रह कर
कुछ रहस्यमय आकृतियाँ
राहगीरों को लुभाने की कोशिश में
ये नहीं थीं उस चमकते तिलिस्मी लोक की अप्सराएँ
जो सर्राफ़े के ऊपर मीरगंज में महफ़िलें सजाती थीं,
थिरकती थीं, पाज़ेब झनकारतीं
ये तो एक ख़स्ताहाल सराय की
ख़स्ताहाल कोठरियों की
साँवली छायाएँ थीं
जाने अपने से भी ज़ियादा ख़स्ताहाल
कैसे-कैसे जिस्मों को
जाने कैसी-कैसी लज़्ज़तें बख़्शतीं
बचपन में
’बड़े’ की बिरयानी या सालन और रोटियाँ खाने की
खुफ़िया क़वायद में किसी होटल में बैठ कर
हम चोर निगाहों से देखते थे
उनकी तरफ़
जो हम से भी ज़ियादा चोर निगाहों से
परख रही होतीं हर आने-जाने वाले को
वक़्त बीता
ज़मीनों की क़ीमतें बढ़ीं
जिस्मों की क़ीमतें पहले भी कोई ज़ियादा न थीं
अब तो और भी कम हो गईं
सर्राफ़े के ऊपर की रौनकें ख़त्म हुईं
बन्द हो गईं पाज़ेबों की झनकारें
’नाज़ टाकी’ में जलवा क़ायम हुआ
कुक्कू और हेलेन का
सर्राफ़े में भी पर्दे नज़र आने लगे
घण्टाघर को घेर लिया प्लास्टिक की पन्नियाँ और
सस्ते रेडी-मेड कपड़े बेचने वालों
और फ़ुटपाथिया बिसातियों ने
नारे लगाने वाले भी जा लगे
दूसरे हीलों से
इधर सराय में
धीरे-धीरे क़दम-दर-क़दम
बढ़ती चली आईं दुकानें
बिस्कुट, जूते, प्लास्टिक की पन्नियाँ,
मोमजामे, फ़ोम और रेक्सीन, कपड़ा, रेडीमेड परिधान
होटलों ने बदले चोले
अँधेरा दूर हुआ
दूर हो गयीं वे रहस्यमय आकृतियाँ
और उनका वह रहस्यमय लोक
कुछ बम फूटे, कुछ सुपारियाँ दी गईं
एक दिन विदा हो गईं
गढ़ी सराय की औरतें
एक बाज़ार ने उन्हें वहाँ ला बैठाया था
दूसरे ने फेंक दिया उन्हें बेआसरापन के घूरे पर
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