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क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था

Nazeer AkbarabadiNazeer Akbarabadi
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क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था

अपना भी उस तरफ़ गुज़र आशिक़ाना था

मिल बैठने के वास्ते आपस में हर घड़ी

था कुछ फ़रेब वाँ तो इधर कुछ बहाना था

चाहत हमारी ताड़ते हैं वाँ के ताड़-बाज़

तिस पर हनूज़ ख़ूब तरह दिल लगा न था

क्या क्या दिलों में होती थी बिन देखे बे-कली

है कल की बात हैफ़ कि ऐसा ज़माना था

अब इस क़दर हुआ वो फ़रामोश ऐ 'नज़ीर'

क्या जाने वो मुआ'मला कुछ था भी या न था

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