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डगमग डोले दीनानाथ,
नैया भव-सागर में मेरी।
मैंने भर-भर जीवन भार, छोड़े तन-वोहित बहुबार,
पहुंचा एक नहीं उस पारत्र यह भी काल-चक्र ने घेरी।
टूटा मेरुदण्ड-पतबार, कर-पग-पाते चलें न चार,
मनी मन-माझी ने हार, दरसे दुर्गती-रात अंधेरी।
ऊले अघ, झष-नक्र, भुजंग, झटकें-पटकें ताप-तरंग,
मिलकर कर्म-पवन के संग, तरणी भरती है चकफेरी।
ठोकर मरणाचल की खाय, फट कर डूब जायगी हाय,
‘शंकर’ अब तो पार लगाय, तेरी मार सही बहुतेरी।
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