
0 Bookmarks 112 Reads0 Likes
हिमालय के तब आँगन में—
झील में लगा बरसने स्वर्ण
पिघलते हिमवानों के बीच
खिलखिला उठा दूब का वर्ण
शुक्र-छाया में सूना कूल देख
उतरे थे प्यासे मेघ
तभी सुन किरणाश्वों की टाप
भर गयी उन नयनों में बात
हो उठे उनके अंचल लाल
लाज कुंकुम में डूबे गाल
गिरी जब इन्द्र-दिशा में देवि
सोमरंजित नयनों की छाँह
रूप के उस वृन्दावन में !!
व्योम का ज्यों अरण्य हो शान्त
मृगी-शावक-सा अंचल थाम
तुम्हें मुनि-कन्या-सा घन-क्लान्त
तुम्हारी चम्पक—बाँहों बीच
हठीला लेता आँखें मीच
लहर को स्वर्ण कमल की नाल
समझ कर पकड़ रहे गज-बाल,
तुम्हारे उत्तरीय के रंग
किरन फैला आती हिम-शृंग
हँसी जब इन्द्र दिशा से देवि
सोम रंजित नयनों की छाँह
मलय के चन्दन-कानन में !!
हिमालय के तब आँगन में !!
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments