0 Bookmarks 91 Reads0 Likes
चाहत की नज़र आप से डाली भी गई है
हसरत किसी आशिक़ की निकाली भी गई है
तुम ने किसी बीमार को अच्छा भी किया है
हालत किसी बिगड़े की सँभाली भी गई है
तुम खेल समझते हो मगर ये तो बताओ
आह-ए-दिल-ए-मुज़्तर कभी ख़ाली भी गई है
क्या ख़ाक करूँ में ख़लिश इश्क़ का शिकवा
ये फाँस कभी तुम से निकाली भी गई है
झगड़े भी कहीं रश्क-ए-रक़ाबत के मिटे हैं
उल्फ़त में कभी ख़ाम-ख़याली भी गई है
'मुज़्तर' को कभी हुस्न का सदक़ा भी दिया है
ये भीक कभी आप से डाली भी गई है
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments