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जा बसा मग़रिब

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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जा बसा मग़रिब में आख़िर ऐ मकाँ तेरा मकीं

आह! मशरिक़ की पसंद आई न उस को सरज़मीं

आ गया आज इस सदाक़त का मिरे दिल को यक़ीं

ज़ुल्मत-ए-शब से ज़िया-ए-रोज़-ए-फ़ुर्क़त कम नहीं

''ताज़ आग़ोश-ए-विदाइ'श दाग़-ए-हैरत चीदा अस्त

हम-चू शम-ए-कुश्ता दर-चश्म-ए-निगह ख़्वाबीदा अस्त''

कुश्ता-ए-उज़लत हूँ आबादी में घबराता हूँ मैं

शहर से सौदा की शिद्दत में निकल जाता हूँ मैं

याद-ए-अय्याम-ए-सलफ़ से दिल को तड़पाता हूँ मैं

बहर-ए-तस्कीं तेरी जानिब दौड़ता आता हूँ मैं

आँख को मानूस है तेरे दर-ओ-दीवार से

अज्नबिय्यत है मगर पैदा मिरी रफ़्तार से

ज़र्रा मेरे दिल का ख़ुर्शीद-आश्ना होने को था

आइना टूटा हुआ आलम-नुमा होने को था

नख़्ल मेरी आरज़ूओं का हरा होने को था

आह! क्या जाने कोई मैं क्या से क्या होने को था!

अब्र-ए-रहमत दामन-अज़-गलज़ार-ए-मन बर्चीद-ओ-रफ़त

अंदकै बर-ग़ुंचा हाए आरज़ू बारीद-ओ-रफ़्त

तू कहाँ है ऐ कलीम-ए-ज़र्रा-ए-सीना-ए-इल्म!

थी तिरी मौज-ए-नफ़स बाद-ए-नशात-अफ़ज़ा-ए-इल्म

अब कहाँ वो शौक़-ए-रह-पैमाई-ए-सहरा-ए-इल्म

तेरे दम से था हमारे सर में भी सौदा-ए-इल्म

''शोर-ए-लैला को कि बाज़-आराइश-ए-सौदा कुनद

ख़ाक-ए-मजनूँ-रा ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-सहरा कुनद''

खोल देगा दश्त-ए-वहशत उक़्दा-ए-तक़दीर को

तोड़ कर पहुँचूँगा मैं पंजाब की ज़ंजीर को

देखता है दीदा-ए-हैराँ तिरी तस्वीर को

क्या तसल्ली हो मगर गिरवीदा-ए-तक़रीर को

''ताब-ए-गोयाई नहीं रखता दहन तस्वीर का

ख़ामुशी कहते हैं जिस को है सुख़न तस्वीर का''

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