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हर इक मक़ाम से

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ

कमाल किस को मयस्सर हुआ है बे-तग-ओ-दौ

नफ़स के ज़ोर से वो ग़ुंचा वा हुआ भी तो क्या

जिसे नसीब नहीं आफ़्ताब का परतव

निगाह पाक है तेरी तो पाक है दिल भी

कि दिल को हक़ ने किया है निगाह का पैरव

पनप सका न ख़याबाँ में लाला-ए-दिल-सोज़

कि साज़गार नहीं ये जहान-ए-गंदुम-ओ-जौ

रहे न 'ऐबक' ओ 'ग़ौरी' के मारके बाक़ी

हमेशा ताज़ा ओ शीरीं है नग़्मा-ए-'ख़ुसरौ'

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