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अपनी जौलाँ-गाह

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं

आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं

बे-हिजाबी से तिरी टूटा निगाहों का तिलिस्म

इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं

कारवाँ थक कर फ़ज़ा के पेच-ओ-ख़म में रह गया

मेहर ओ माह ओ मुश्तरी को हम-इनाँ समझा था मैं

इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम

इस ज़मीन ओ आसमाँ को बे-कराँ समझा था मैं

कह गईं राज़-ए-मोहब्बत पर्दा-दारी-हा-ए-शौक़

थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं

थी किसी दरमाँदा रह-रौ की सदा-ए-दर्दनाक

जिस को आवाज़-ए-रहील-ए-कारवाँ समझा था मैं

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