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ऐ अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ में पैदा तिरी आयात

Muhammad IqbalMuhammad Iqbal
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ऐ अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ में पैदा तिरी आयात

हक़ ये है कि है ज़िंदा ओ पाइंदा तिरी ज़ात

मैं कैसे समझता कि तू है या कि नहीं है

हर दम मुतग़य्यर थे ख़िरद के नज़रियात

महरम नहीं फ़ितरत के सुरूद-ए-अज़ली से

बीना-ए-कवाकिब हो कि दाना-ए-नबातात

आज आँख ने देखा तो वो आलम हुआ साबित

मैं जिस को समझता था कलीसा के ख़ुराफ़ात

हम बंद-ए-शब-ओ-रोज़ में जकड़े हुए बंदे

तू ख़ालिक़-ए-आसार-ओ-निगारंदा-ए-आनात

इक बात अगर मुझ को इजाज़त हो तो पूछूँ

हल कर न सके जिस को हकीमों के मक़ालात

जब तक मैं जिया ख़ेमा-ए-अफ़्लाक के नीचे

काँटे की तरह दिल में खटकती रही ये बात

गुफ़्तार के उस्लूब पे क़ाबू नहीं रहता

जब रूह के अंदर मुतलातुम हों ख़यालात

वो कौन सा आदम है कि तू जिस का है माबूद

वो आदम-ए-ख़ाकी कि जो है ज़ेर-ए-समावात

मशरिक़ के ख़ुदावंद सफ़ेदान-ए-फ़िरंगी

मग़रिब के ख़ुदावंद दरख़शिंदा फ़िलिज़्ज़ात

यूरोप में बहुत रौशनी-ए-इल्म-ओ-हुनर है

हक़ ये है कि बे-चश्मा-ए-हैवाँ है ये ज़ुल्मात

रानाई-ए-तामीर में रौनक़ में सफ़ा में

गिरजों से कहीं बढ़ के हैं बैंकों की इमारात

ज़ाहिर में तिजारत है हक़ीक़त में जुआ है

सूद एक का लाखों के लिए मर्ग-ए-मुफ़ाजात

ये इल्म ये हिकमत ये तदब्बुर ये हुकूमत

पीते हैं लहू देते हैं तालीम-ए-मुसावात

बेकारी ओ उर्यानी ओ मय-ख़्वारी ओ अफ़्लास

क्या कम हैं फ़रंगी मदनियत की फ़ुतूहात

वो क़ौम कि फ़ैज़ान-ए-समावी से हो महरूम

हद उस के कमालात की है बर्क़ ओ बुख़ारात

है दिल के लिए मौत मशीनों की हुकूमत

एहसास-ए-मुरव्वत को कुचल देते हैं आलात

आसार तो कुछ कुछ नज़र आते हैं कि आख़िर

तदबीर को तक़दीर के शातिर ने किया मात

मय-ख़ाना ने की बुनियाद में आया है तज़लज़ुल

बैठे हैं इसी फ़िक्र में पीरान-ए-ख़राबात

चेहरों पे जो सुर्ख़ी नज़र आती है सर-ए-शाम

या ग़ाज़ा है या साग़र ओ मीना की करामात

तू क़ादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहाँ में

हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात

कब डूबेगा सरमाया-परस्ती का सफ़ीना

दुनिया है तिरी मुंतज़िर-ए-रोज़-ए-मुकाफ़ात

 

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