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लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

Muhammad Ibrahim ZauqMuhammad Ibrahim Zauq
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लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

 

हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग

हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले

 

हम से भी इस बिसात पे कम होंगे बद-क़िमार

जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

 

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे

पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले

 

लैला का नाक़ा दश्त में तासीर-ए-इश्क़ से

सुन कर फ़ुग़ान-ए-क़ैस बजा-ए-हुदी चले

 

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है हो वही

दानिश तिरी न कुछ मिरी दानिश-वरी चले

 

दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ

तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले

जाते हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'

अपनी बला से बाद-ए-सबा अब कभी चले

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