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बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं

Muhammad Ibrahim ZauqMuhammad Ibrahim Zauq
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बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं

हम अपने हाथों का मिज़्गाँ से काम लेते हैं

हम उन की ज़ुल्फ़ से सौदा जो वाम लेते हैं

तो अस्ल ओ सूद वो सब दाम दाम लेते हैं

शब-ए-विसाल के रोज़-ए-फ़िराक़ में क्या क्या

नसीब मुझ से मिरे इंतिक़ाम लेते हैं

क़मर ही दाग़-ए-ग़ुलामी फ़क़त नहीं रखता

वो मोल ऐसे हज़ारों ग़ुलाम लेते हैं

हम उन के ज़ोर के क़ाइल हैं हैं वही शह-ज़ोर

जो इश्क़ में दिल-ए-मुज़्तर को थाम लेते हैं

क़तील-ए-नाज़ बताते नहीं तुझे क़ातिल

जब उन से पूछो अजल ही का नाम लेते हैं

तिरे असीर जो सय्याद करते हैं फ़रियाद

तो फिर वो दम ही नहीं ज़ेर-ए-दाम लेते हैं

झुकाए है सर-ए-तस्लीम माह-ए-नौ पर वो

ग़ुरूर-ए-हुस्न से किस का सलाम लेते हैं

तिरे ख़िराम के पैरू हैं जितने फ़ित्ने हैं

क़दम सब आन के वक़्त-ए-ख़िराम लेते हैं

हमारे हाथ से ऐ 'ज़ौक़' वक़्त-ए-मय-नोशी

हज़ार नाज़ से वो एक जाम लेते हैं

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