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आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है

Muhammad Ibrahim ZauqMuhammad Ibrahim Zauq
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आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है

जान कुश्ती क़ज़ा से लड़ती है

शोला भड़के न क्यूँ कि महफ़िल में

शम्अ तुझ बिन हवा से लड़ती है

क़िस्मत उस बुत से जा लड़ी अपनी

देखो अहमक़ ख़ुदा से लड़ती है

शोर-ए-क़ुलक़ुल ये क्यूँ है दुख़्तर-ए-रज़

क्या किसी पारसा से लड़ती है

नहीं मिज़्गाँ की दो सफ़ें गोया

इक बला इक बला से लड़ती है

निगह-ए-नाज़ उस की आशिक़ से

छूट किस किस अदा से लड़ती है

तेरे बीमार के सर-ए-बालीं

मौत क्या क्या शिफ़ा से लड़ती है

ज़ाल-ए-दुनिया ने सुल्ह की किस दिन

ये लड़ाका सदा से लड़ती है

वाह क्या क्या तबीअत अपनी भी

इश्क़ में इब्तिदा से लड़ती है

देख उस चश्म-ए-मस्त की शोख़ी

जब किसी पारसा से लड़ती है

तेरी शमशीर-ए-ख़ूँ के छींटों से

छींटे आब-ए-बक़ा से लड़ती है

सच है अल-हर्ब ख़ुदअतुन ऐ 'ज़ौक़'

निगह उस की दग़ा से लड़ती है

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