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आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें

Mirza Mohammad rafi 'SaudaMirza Mohammad rafi 'Sauda
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आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें

दो-चार घड़ी रोना दो-चार घड़ी बातें

क़ुर्बां हूँ मुझे जिस दम याद आती हैं वो बातें

क्या दिन वो मुबारक थे क्या ख़ूब थीं वो रातें

औरों से छुटे दिलबर दिल-दार होवे मेरा

बर-हक़ हैं अगर पैरव कुछ तुम में करामातें

कल लड़ गईं कूचे में आँखों से मिरी आँखियाँ

कुछ ज़ोर ही आपस में दो दो हुईं समघातें

कश्मीर सी जागह में ना-शुक्र न रह ज़ाहिद

जन्नत में तू ऐ गीदी मारे है ये क्यूँ लातें

इस इश्क़ के कूचे में ज़ाहिद तू सँभल चलना

कुछ पेश न जावेंगी याँ तेरी मुनाजातें

उस रोज़ मियाँ मिल कर नज़रों को चुराते थे

तुझ याद में ही साजन करते हैं मदारातें

'सौदा' को अगर पूछो अहवाल है ये उस का

दो-चार घड़ी रोना दो-चार घड़ी बातें

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