लोकगीत सुनकर's image
2 min read

लोकगीत सुनकर

Manglesh DabralManglesh Dabral
0 Bookmarks 471 Reads0 Likes


वह बहुत मीठी धुन थी
दूर से एक स्त्री का स्वर गूँजता हुआ आता था
सुरीला सुखद और मार्मिक
ज़रूर वह लम्बे समय तक सँगीत सीखती रही होगी
मर्म पर छपते उन स्वरों के शब्द
आर्तनाद से भरे हुए थे
हे दीनानाथ मेरा यह अर्घ्य स्वीकार करो
हे पाँच नामों वाले देवता इस बस्ती के नारायण
स्वीकार करो मेरे ख़ाली हाथों का यह नैवेद्य
मैं सुनती रहती हूँ सास-ससुर घर के लोगों के कुबोल
पता नहीं कहाँ से पुरखे चले आते हैं
और ताने देकर चले जाते हैं
पता नहीं किस गुनाह की सज़ा मुझे मिलती है

दूर से आ रही थी वह ध्वनि
नज़र नहीं आती थी उसकी गायक
लगता था सभी स्त्रियाँ उसे गा रहीं हैं
बिना चहरे की नामहीन
बहुत मीठी थी वह धुन
लेकिन उन शब्दों में भरी थी एक स्त्री की दासता
एक कातरता एक अभागेपन की ख़बर
वह गायन एक साथ मुग्ध करता और डराता था

स्त्रियाँ मीठे स्वरों में बाँचती हैं अपनी व्यथा
अपने अभागेपन की कथा
उसके भयानक शब्दों को सजाती-सँवारती हैं
उनमें आरोह-अवरोह-अलँकार के बेल-बूटे काढ़ती हैं
ताकि वे सुनने में अच्छे लगें
पूछती हैं दीनानाथों से
बताओ कौन से हैं मेरे गुनाह
जिनके लिए दी जा रही है मुझे सज़ा
दीनानाथ कोई जवाब नहीं देते
उनका यह अभागापन अलग से है ।

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts