पगली तेरा ठाट !
किया है रतनाम्बर परिधान
अपने काबू नहीं,
और यह सत्याचरण विधान !
उन्मादक मीठे सपने ये,
ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में
कालिन्दी की लहरें।
डोर खींच मत शोर मचा,
मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ
तू मानस तट की ओर ।
कौन गा उठा? अरे!
करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बन्दी हैं
वे श्यामल-गौर-शरीर।
पलकों की चिक पर
हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
नि:श्वासें पंखे झलती हैं
उनसे मत गुंजारे;
यही व्याधि मेरी समाधि है,
यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर,
मत छेदे मेरे भाग।
काले अंतस्तल से छूटी
कालिन्दी की धार
पुतली की नौका पर
लायी मैं दिलदार उतार
बादबान तानी पलकों ने,
हा! यह क्या व्यापार !
कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में
छूट पड़ी पतवार !
भूली जाती हूँ अपने को,
प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे,
अपने अम्बर का छोर।
अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,
हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी
हूँ पुतली में तसवीर;
डरती हूँ दिखलायी पड़ती
तेरी उसमें बंसी
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे
तू दिखता जदुबंसी।
अपराधी हूँ, मंजुल मूरत
ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी
ऐसी बाँकी झाँकी।
अरी खोद कर मत देखे,
वे अभी पनप पाये हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से,
कुछ अंकुर आये हैं,
पत्ती को मस्ती लाने दे,
कलिका कढ़ जाने दे,
अन्तर तर को, अन्त चीर कर,
अपनी पर आने दे,
ही-तल बेध, समस्त खेद तज,
मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण
पर चढ़कर खो जाऊँगी।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments