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दिल-ए-ख़ूँगश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं

Majaz LakhnawiMajaz Lakhnawi
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दिल-ए-ख़ूँगश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं|
अब करम भी गिराँ न हो जाये|

तेरे बीमार का ख़ुदा हाफ़िज़,
नज़्र-ए-चारागराँ न हो जाये|

इश्क़ क्या क्या न आफ़तें ढाये,
हुस्न गर महर्बाँ न हो जाये|

मैं के आगे ग़मों का कोह-ए-गिराँ,
एक पल में धुआँ न हो जाये|

फिर 'मज़ाज़' इन दिनों ये ख़तरा है,
दिल हलाक-ए-बुताँ न हो जाये|

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