मेरे दोस्त मेरे कंधे पर यह जो है
वह सलीब नहीं!
प्यारे, हरएक काठ सलीब नहीं होता है
हर एक आदमी मसीह नहीं होता है
यह मेरे कंधे पर है
कर्ण के कवच जैसा जन्मजात
जन्य सहचर; आदिम-अस्त्र
पराक्रमी हल है।
जिसके पराक्रम के माध्यम से
सहजवंध्या धरित्री में सगर्व शक्तिमान
आत्मा के फूल फूटते हैं
मणिभोगी रक्तपायी होते हैं निर्वंश
और शत्रुओं के महल होते हैं
क्षार-क्षार
युग प्रतियुग एक ही कथा दुहराते हैं
सभी इसी हल से प्राण त्राण पाते हैं
यह हल है धरती की वन्ध्या योनि तोड़ने को
सीता उत्पन्न करने को
रावण नष्ट करने को।
अतः
मत गलतफहमी करना प्यारे दोस्त
यह तुम्हारा क्रीड़ा सलीब नहीं
सँभल कर छूना इसे
यह काष्ठ का लौहफलक युक्त
हलधर के बेटों का हल है
परम प्राचीन पुण्य पराक्रम हल है
और क्रोध आने पर
इसी की नोक पर खींचकर
तुम्हारे हस्तिनापुर को उखाड़
गंगा-यमुना में फेंक सकता हूँ;
यह हलधर का हल है
तुम्हारा क्रीत सलीब नहीं।
[ 1964-65 में गंगा-गोमती के कोण पर सम्पादक : डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक में छपी। ]
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