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मथान गुड़ी संध्या
वृक्ष-वृक्ष पर पत्र-पत्र पर संध्या सम्मोहन उतरा
उस पार गहन बन पर इस पार हमारी धरती पर
नभचारी श्वेत बलाकाओं के पंखों पर
शिला संकुलित हरित धवल जल पर तिरता उतरा।
स्वर की शब्दहीन आदिम ध्वनियों का कलरव
वन में पत्तों की झर-झर, फड़-फड़ उड़ते पंखों की
दूर चटखती शाखायें रह रह मत्तगयंद उतरते
मृगयूथों की पांत कहीं उस पार नदी तट पर।
तब भी साँवरी हवा के कानों में कोई बोल रहा
"री चुप-चुप धीरे से बोल न सुन ले कोई"
शब्द पिघलता अंधकार में शीश सटाये
जैसे प्रिया वक्ष से उठती सांसें सुनता कोई।
जैसे उस दिन बन्द कक्ष में लिये हाथ में हाथ तुम्हारा
मन कहता था, मन सुनता था, बाहर था स्वर हारा।
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