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मन का दर्पण

Kuber Nath RaiKuber Nath Rai
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(१)
लेखनी वंध्या कभी नहीं रही
व्यथा तुम्हें मैंने कही
कालिमा सदा बही, घटा घिरी
अनुदिन तुम्हारी छटा सजी
लेखनी वंध्या कभी नहीं रही।

(२)
घोड़े कभी बैठते नहीं
सूरमा मुँह मोड़ते नहीं
कवि की कथा सुनो रे बंधु
दिल लगाकर तोड़ते नहीं
तब फिर चोट खा
बैठे मन को मार
मन के अश्व दौड़ाओ।

(३)
छायी थी घटा आज,
कटी रेशम की डोर
तुम्हारे चपल नयन की,
वयन की; मन ने बढ़ाया हाथ
देखा तुम्हारा भ्रूभंग
सहम गया बच्चा बेचारा
अस्त हुई नभ की छटा।

(४)
यह कैसी कथा है
मर मर कर जी उठती ऐसी व्यथा है
तुम्हारा नयन रस
मेरा हृदय रस
मिले एक में जब
तो यह बनी थी कथा
जिसे बार-बार मैंने मथा
और पाया रतन यह व्यथा।

(५)
झनझन निचाट अमराई
सूनी दुपहरिया सूनी डगर
धूप में दूर मृगजल नाचता
मुझसे दूर मनमृग भागता
झनझन निचाट अमराई
बैठो न क्षण भर यहाँ
बोलो वचन दो एक
कटु मधु कुछ भी तो कहो।

(६)
डोर मत काटो तुम
ऐसा नहीं करते हैं
दो चार पल ठहरो
इतना जल्दी नहीं छलते हैं
ऊष्मा मिटाओ मत
अभी मत बहाओ ठंढी हवा
कुछ रोको तो इस धूप को, आँखों में
मत मुझे व्यर्थ यों बनाओ तुम।

(७)
ठहरो न दो पल
मन को ऐसे न हराओ प्रिय
पार नहीं लगना है
तार नहीं बुनना है
साज नहीं गढ़ना है
चंग नहीं चढ़ना है
मेघ नहीं गहना है
रह जाना है रिक्त-रिक्त शून्य हाथ
जानता हूँ खूब इसे
कल तो डूबना है ही
फिर भी आज ही अभी मत
डुबाओ प्रिय।

(८)
वौरों के गंध से भरी-भरी
कल जो आयी हवा
तुम्हारी साँस से भरी-भरी
कल जो आयी हवा
साँसों का मधुमास छाया तुम्हारा
बाँधो उसे पलभर और
जीने दो मुझको छणभर और
मत तुम पूर्वा बहाओ अभी
लगाओ न नयनों में अंजन अभी
क्षणभर और प्रिय
बहने दो साँसों भर यह हवा।

(९)
पीकर नयनों का रस
लग गये प्राणों में फूल
लग गई स्नेह की बालें
लग गया खेतों में दाना
पौधों के तन में रस लहराया
फिर पाकर साँसों की गरमी
हो गया पकहर दाना
प्यार की मैंने की खेती
ऐसे में आँखों से हिम बरसाओ।

(१०)
रातभर छाये रहे गन्दे ये बादल
सबेरे अचानक बरसी यह घटा
धुल गयी मन की सारी मैल
छिटकी खुशी की धूप
नैनों में हँस पड़े जंगल
बाजी तुम्हारी छबि की बंशी
गमका मेरी व्यथा का मादल।

(११)
तुम हो मन का दर्पण
चुपचाप मैं पड़ा रहा
मन को कस कर गहे रहा
दिल के नीर में आँखे धो-धो
निर्मल करता रहा
तुम्हारा यह दर्पण
जो तुम हो ही स्वयं मेरे प्रिय
मेरे प्रिय तुम ही हो मेरे मन का दर्पण।

 

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