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मेरे ललाट के मध्य बह रही वैरिणी
एक विरजा नदी
उसी में निरन्तर स्नान करती एक कन्या
स्वप्न संभवा कन्या
बार-बार, बार-बार
फिर हंस बन उड़ गई कन्या।
ओह नदी तू वैरिणी।
कि हंस बन उड़ गई कन्या
किसी सुदूर हस्तिकान्त देश में
या किसी काम्पक वन, अथवा
सिंहल द्वीप में, वह कन्या
हंस बन, फूल बन, तारा बन
अथवा स्वप्न बन
विचर रही होगी वह कन्या
विरजा कन्या
ओह तू रूपान्तरकारिणी सर्वभक्षी
वैरिणी विरजा नदी।
वह रहा प्रतीक्षारत धार में स्मृति के पत्र-पुट
अश्रु और प्रार्थना के दोने और
नामांकित कागज की नाव
कि शायद एक दिन
जन्मान्तर के आह्वान सुन
फिर इसी नदी की धार में
कमल-वन का प्रस्फुटन हो जाय
वह नाम और उस नाम के मध्य
वह पद्मसंभवा विरजा कन्या
सर्वभक्षी नदी तू
मेरी प्रार्थना स्वीकार कर।
[ 1967 ]
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