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गुम्बज के ऊपर बैठी है, कौंसिल घर की मैना ।
सुंदर सुख की मधुर धूप है, सेंक रही है डैना ।।
तापस वेश नहीं है उसका, वह है अब महारानी ।
त्याग-तपस्या का फल पाकर, जी में बहुत अघानी ।।
कहता है केदार सुनो जी ! मैना है निर्द्वंद्व ।
सत्य-अहिंसा आदर्शों के, गाती है प्रिय छंद ।।
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